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बुरे की कर बुराई अब (बुरे को अब बुरा कह कर) बुराई कौन लेता है
यहाँ रूतबे के लोगों से सफाई कौन लेता है
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हँसी अती है लोगों को किसी की आँख नम हो तो
किसी की पीर हरने को बिवाई कौन लेता है
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सभी हम्माम में नंगे किसे क्या फर्क पड़ता अब
जमाना भी न देखे जगहॅसाई कौन लेता है
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मुखौटे ओढ़कर अब तो दिलो का राज रखते सब
सच्चाई कौन देता है सच्चाई कौन लेता है
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मिले आशीष बूढ़ों का नहीं इससे बड़ी नेमत
मगर इसको बताओ मुँहदिखाई कौन लेता है
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बचा लेती है जाँ देकर हमेशा लाल को अपने
कहो माता के जैसा तुम बलाई कौन लेता है
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एक हसगुल्ला
सुनो ससुराल वालो तुम जमाना अब लफंगो का
जवाँ गर शालियाँ हों तो लुगाई कौन लेता है
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मौलिक और अप्रकाशित
Comment
अच्छे शे'रों वाली गज़ल |जमाने के दोगलेपन और नंगेपन को सीधे बयान करती |बधाई |
उम्दा गज़ल के लिए ढेरों मुबारकबाद .... |
बुरे को अब बुरा कह कर बुराई कौन लेता है
यहाँ रूतबे के लोगों से सफाई कौन लेता है.......... बेहतरीन मतला...... मुझे ये वर्जन ज्यादा पसंद आया
हँसी आती है लोगों को किसी की आँख नम हो तो
किसी की पीर हरने को बिवाई कौन लेता है............ वाह वाह अच्छा शेर
सभी नंगे हमामों में किसे क्या फर्क पड़ता अब
जमाना भी न देखे जगहॅसाई कौन लेता है..... वाह वाह
मुखौटे ओढ़कर अब तो दिलो का राज रखते सब.......... मुखौटे ओढ़कर बैठे दिलो में चोर है जिनके
सच्चाई कौन देता है सच्चाई कौन लेता है.......... सफाई कौन देता है सफाई कौन लेता है ............. सच्चाई को सचाई पढना होगा. एक निवेदन है सर... आपकी ग़ज़ल के हवाले से इस बह्र पर थोड़ा और अभ्यास हो गया.
मिले आशीष बूढ़ों का नहीं इससे बड़ी नेमत.......... बुजुर्गों की दुआओं से नहीं कोई बड़ी नेमत
मगर इसको बताओ मुँहदिखाई कौन लेता है.......... मगर चिल्लर बताकर मुँहदिखाई कौन लेता है
बचा लेती है जाँ देकर हमेशा लाल को अपने
कहो माता के जैसे तुम बलाई कौन लेता है........ वाह वाह लक्ष्मण सर बेहतरीन शेर .... दिल जीत लिया इस शेर ने
हा हा हा .....हसगुल्ला मजेदार है बस शालियाँ के स्थान पर सालियाँ निवेदित है
सुनो ससुराल वालो तुम जमाना अब लफंगो का
जवाँ गर शालियाँ हों तो लुगाई कौन लेता है
शालियाँ पर कामायनी की पंक्तियाँ याद आ गई -
जब देखो बैठी हुई वहीं, शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत,
या अन्न इकट्ठे करती है, होती न तनिक सी कभी क्लांत
बीजों का संग्रह और इधर, चलती है तकली भरी गीत,
सब कुछ लेकर बैठी है वह, मेरा अस्तित्व हुआ अतीत"
आपके हसगुल्ले पर -
सुनो ससुराल वालो तुम जमाना घर जमाई का
ससुर जी की अमीरी में विदाई कौन लेता है
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर बेहतरीन ग़ज़ल के दिल से दाद कुबूल फरमाए... बह्र के अभ्यास के क्रम में आपकी ग़ज़ल पर इतनी धृष्टता कर गया.... क्षमा सहित पुनः बधाई निवेदित है.
लक्ष्मण जी
आप की सुन्दर गजल का मतला बहुत अच्छा लगा i हंसगुल्ला भी युगानुरूप है i सादर i
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, सुन्दर ग़ज़ल है ,हार्दिक बधाई आपको ,बस प्रथम पंक्ति में (बुरे को अब बुरा कह कर) लिखने की आवश्यक्ता नहीं है वैसे ही समझ आ रहा है ! सादर
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