कौन पी गया जल मेघों का …..
कौन पी गया जल मेघों का …..
और किसने नीर बहाये //
क्योँ बसंत में आखिर …
पुष्प बगिया के मुरझाये //
प्रेम ऋतु में नयन देहरी पर …
क्योँ अश्रु कण मुस्काये //
विरह का वो निर्मम क्षण ….
धड़कन से बतियाये //
वायु वेग से वातायन के ….
पट क्योँ शोर मचाये //
छलिया छवि उस निर्मोही की …
तम के घूंघट से मुस्काये //
वो छुअन एकान्त की ….
देह विस्मृत न कर पाये //
तृषातुर अधरों से विरह की ….
तपिश सही न जाए //
नयन घटों पर व्याकुल तृप्ति …
दूर खड़ी सकुचाये //
गौर कपोल पे कुंतल-लट का …
नेह ये शोर मचाये //
पी वियोग में अंजन रेखा …..
संग अंसुअन के बही जाए //
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सुशील सरना सर बहुत खूब कहा है आपने ,
कौन पी गया जल मेघों का …..
और किसने नीर बहाये //
क्योँ बसंत में आखिर …
पुष्प बगिया के मुरझाये // सुन्दर रचना , हार्दिक बधाई ! सादर
सशक्त शब्द संयोजन ...भावपूर्ण ...बधाई
आदरणीय सुशील सरना सर, सुन्दर भावों से सजी रचना के लिए हार्दिक बधाई निवेदित है.
वाह !शब्द कितनी सुन्दरता से संजोए आप ने |विरह का जो भी अवसाद हो ,पर उसका प्रकटीकरण बहुत सार्थक ढंग से किया है |बधाई !
सुंदर शब्द व् भाव से सजी हुई प्रस्तुति. बधाई आदरणीय सरना जी
SARNAA JEE
सुन्दर भावपूर्ण रचना i
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