मेरा देहात क्यूँ रोटी से भी महरूम है यारों
कहाँ अटका है रिज़्के-हक़ मुझे मालूम है यारों
उठा पेमेंट उसका क्यूँ नरेगा की मज़ूरी से
घसीटाराम तो दो साल से मरहूम है यारों
करें किससे शिकायत हम , कहाँ जायें गिला लेकर
व्यवस्था हो गई ज़ालिम बशर मज़लूम है यारों
सिखाओ मत इसे बातें सियासत की विषैली तुम
मेरा देहात का दिल तो बड़ा मासूम है यारों
लिए फिरता है वो कानून अपनी जेब में हरदम
जो कायम कायदों पर है बशर वो बूम है यारों बूम = उल्लू \मूर्ख
सियासत ने कई खाँचे कई हिस्से बना डाले
लहू का रंग तो इक है मगर मक़्सूम है यारों मक्सूम = विभाजित
उफ़ुक ओझल हुआ ‘खुरशीद’ भी जाने कहाँ गायब
उजाला गुम अँधेरे ने मचाई धूम है यारों
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय खुरशीद साहब शानदार रचना है आनंद आ गया
उठा पेमेंट उसका क्यूँ नरेगा की मज़ूरी से
घसीटाराम तो दो साल से मरहूम है यारों...........वाह
सिखाओ मत इसे बातें सियासत की विषैली तुम
मेरा देहात का दिल तो बड़ा मासूम है यारों.......बहुत सुन्दर ! सादर
speechless......again.....
वाह वाह आदरणीय खुर्शीद सर, कई प्रासंगिक सवालों की ओर इशारा करती हुई बेहतरीन ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं.
ये अशआर तो बस कमाल है-
मेरा देहात क्यूँ रोटी से भी महरूम है यारों
कहाँ अटका है रिज़्के-हक़ मुझे मालूम है यारों
उठा पेमेंट उसका क्यूँ नरेगा की मज़ूरी से
घसीटाराम तो दो साल से मरहूम है यारों
सियासत ने कई खाँचे कई हिस्से बना डाले
लहू का रंग तो इक है मगर मक़्सूम है यारों
करें किससे शिकायत हम , कहाँ जायें गिला लेकर
व्यवस्था हो गई ज़ालिम बशर मज़लूम है यारों..... सर ज़ालिम, बशर, मज़लूम जैसे लफ़्ज़ों के साथ व्यवस्था की बजाय निज़ामत ही सही लगता. वैसे लगता है आपने व्यवस्था का प्रयोग जानबूझकर किया है.
सिखाओ मत इसे बातें सियासत की विषैली तुम
मेरा देहात का दिल तो बड़ा मासूम है यारों..... मेरा देहात के स्थान पर मेरे देहात का दिल तो बड़ा मासूम है यारों.....
पुनः इस बेहतरीन प्रस्तुति पर आपको बहुत बहुत बधाई
शेर दर शेर वाह वाह सर क्या गजल है वाहहहहहहह
आदरणीय खुर्शीद जी आपकी इस पूरी खूबसूरत ग़ज़ल के साथ खासतौर पर इस शे'र के लिए हार्दिक हार्दिक बधाई कबूल फरमाएं
''सियासत ने कई खाँचे कई हिस्से बना डाले
लहू का रंग तो इक है मगर मक़्सूम है यारों '' .... वाह वाह और वाह बस
Bahut achchhi ghazal kahi hai janab. Mubarak ho. daad hazir hai.
आ. खुर्शीद जी इस सुन्दर गजल पर बधाई स्वीकार करें |
आदरणीय खुर्शीद भाई , बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है !! हार्दिक बधाइयाँ ॥
सिखाओ मत इसे बातें सियासत की विषैली तुम
मेरा देहात का दिल तो बड़ा मासूम है यारों --- अति सुन्दर !! दिली बधाइयाँ ।
उफ़ुक ओझल हुआ ‘खुरशीद’ भी जाने कहाँ गायब
उजाला गुम अँधेरे ने मचाई धूम है यारो
आ 0 सारी गजल को आपने मक्ते में निचोड़ दिया है i अति सुन्दर i
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