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ग़ज़ल--१२२२--१२२२--१२२२--१२२२...मुझे मालूम है यारों

मेरा देहात क्यूँ रोटी से भी महरूम है यारों

कहाँ अटका है रिज़्के-हक़ मुझे मालूम है यारों

 

उठा पेमेंट उसका क्यूँ नरेगा की मज़ूरी से

घसीटाराम तो दो साल से मरहूम है यारों

करें किससे शिकायत हम , कहाँ जायें गिला लेकर

व्यवस्था हो गई ज़ालिम बशर मज़लूम है यारों

सिखाओ मत इसे बातें सियासत की विषैली तुम

मेरा देहात का दिल तो बड़ा मासूम है यारों

लिए फिरता है वो कानून अपनी जेब में हरदम

जो कायम कायदों पर है बशर वो बूम है यारों       बूम = उल्लू \मूर्ख

 

सियासत ने कई खाँचे कई हिस्से बना डाले

लहू का रंग तो इक है मगर मक़्सूम  है यारों      मक्सूम = विभाजित

 

उफ़ुक ओझल हुआ ‘खुरशीद’ भी जाने कहाँ गायब

उजाला गुम अँधेरे ने मचाई धूम है यारों

मौलिक व अप्रकाशित 

 

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Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on February 25, 2015 at 11:42pm

आदरणीय खुरशीद साहब शानदार रचना है आनंद आ गया

उठा पेमेंट उसका क्यूँ नरेगा की मज़ूरी से

घसीटाराम तो दो साल से मरहूम है यारों...........वाह

सिखाओ मत इसे बातें सियासत की विषैली तुम

मेरा देहात का दिल तो बड़ा मासूम है यारों.......बहुत सुन्दर ! सादर 

Comment by ajay sharma on February 25, 2015 at 10:49pm

speechless......again.....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 25, 2015 at 9:14pm

वाह वाह आदरणीय खुर्शीद सर, कई प्रासंगिक सवालों की ओर इशारा करती हुई बेहतरीन ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं. 

ये अशआर तो बस कमाल है- 

मेरा देहात क्यूँ रोटी से भी महरूम है यारों

कहाँ अटका है रिज़्के-हक़ मुझे मालूम है यारों

 

उठा पेमेंट उसका क्यूँ नरेगा की मज़ूरी से

घसीटाराम तो दो साल से मरहूम है यारों

सियासत ने कई खाँचे कई हिस्से बना डाले

लहू का रंग तो इक है मगर मक़्सूम  है यारों 

करें किससे शिकायत हम , कहाँ जायें गिला लेकर

व्यवस्था हो गई ज़ालिम बशर मज़लूम है यारों..... सर ज़ालिम, बशर, मज़लूम जैसे लफ़्ज़ों के साथ व्यवस्था की बजाय निज़ामत ही सही लगता. वैसे लगता है आपने व्यवस्था का प्रयोग जानबूझकर किया है. 

सिखाओ मत इसे बातें सियासत की विषैली तुम

मेरा देहात का दिल तो बड़ा मासूम है यारों..... मेरा देहात के स्थान पर मेरे देहात का दिल तो बड़ा मासूम है यारों.....

पुनः इस बेहतरीन प्रस्तुति पर आपको बहुत बहुत बधाई 

Comment by umesh katara on February 25, 2015 at 8:48pm

शेर दर शेर वाह वाह सर क्या गजल है वाहहहहहहह

Comment by gumnaam pithoragarhi on February 25, 2015 at 7:43pm
उठा पेमेंट उसका क्यूँ नरेगा की मज़ूरी से

घसीटाराम तो दो साल से मरहूम है यारों

वाह सर जी बहुत खूब ग़ज़ल कही है बधाई
Comment by Sushil Sarna on February 25, 2015 at 7:05pm

आदरणीय खुर्शीद जी आपकी इस पूरी खूबसूरत ग़ज़ल के साथ खासतौर पर इस शे'र के लिए हार्दिक हार्दिक बधाई कबूल फरमाएं
''सियासत ने कई खाँचे कई हिस्से बना डाले
लहू का रंग तो इक है मगर मक़्सूम है यारों '' .... वाह वाह और वाह बस

Comment by Nirmal Nadeem on February 25, 2015 at 5:48pm

Bahut achchhi ghazal kahi hai janab. Mubarak ho. daad hazir hai.

Comment by maharshi tripathi on February 25, 2015 at 5:42pm

आ. खुर्शीद जी इस सुन्दर गजल पर बधाई स्वीकार करें |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 25, 2015 at 5:27pm

आदरणीय खुर्शीद भाई , बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है !! हार्दिक बधाइयाँ ॥

सिखाओ मत इसे बातें सियासत की विषैली तुम

मेरा देहात का दिल तो बड़ा मासूम है यारों  ---  अति सुन्दर !! दिली बधाइयाँ ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 4:07pm

उफ़ुक ओझल हुआ ‘खुरशीद’ भी जाने कहाँ गायब

उजाला गुम अँधेरे ने मचाई धूम है यारो

आ 0 सारी गजल को आपने मक्ते में निचोड़ दिया है i अति सुन्दर i  

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