For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़लों को भी गीला होते देखा है (मिथिलेश वामनकर)

22-22-22-22-22-2

जो रह-रहकर इस सीने में उठता है

तेरा मेरा दर्द पुराना किस्सा है

 

उनकी आँखों से उतरे हर आँसू से

ग़ज़लों को भी गीला होते देखा है

 

खौफ़जदा हूँ अख़बारों की ख़बरों से

आज हुकूमत ने जाने क्या सोचा है

 

अँधियारा क्यूं कायम रहता है दिल में 

तल्ख़ सवालों ने सूरज को घेरा है

 

चार किताबें मेरे हिस्से की दे दो

आखिर इक लड़की ने भी कुछ बोला है

 

झरते पत्तों ने आखिर ये बतलाया

हर एक शज़र को बूढ़ा होना पड़ता है

 

इस मौसम से बात हुई जब आहिस्ता

इस मौसम के साथ ज़माना रोता है

 

उस घटना के सीने पर तारीख लिखी

अब सीने से जर्द लहू सा बहता है

 

पायल की झंकार सुनाकर बातों में

बातों-बातों में शमसीर गलाता है

 

देहाड़ी को आज चला ले मोबाइल

मुस्तकबिल की खातिर ये भी अच्छा है

 

------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
----------------------------------------------------

Views: 781

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 15, 2015 at 10:36pm

मुझको कैसे गजल लिखना आयेगा 

बतला देते शायर यह भी अच्छा है  गुस्ताखी माफ़!

Comment by Hari Prakash Dubey on April 15, 2015 at 10:15pm

खौफ़जदा हूँ अख़बारों की ख़बरों से

आज हुकूमत ने जाने क्या सोचा है.....बहुत  बढ़िया ग़ज़ल ,आदरणीय मिथिलेश भाई  , बहुत बधाई आपको  ! सादर 

Comment by vandana on April 15, 2015 at 9:18pm

अँधियारा क्यूं कायम रहता है दिल में 

तल्ख़ सवालों ने सूरज को घेरा है

बहुत बढ़िया आदरणीय 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 15, 2015 at 6:56pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , गज़ल बहुत सुन्दर हुई है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

आ. समर भाई जी से मै भी सहमत हूँ , वैसे एक शे र और कमसे कम मै नही समझ पाया , लेकिन ये मेरी नासमझी भी हो सकती है -

चार किताबें मेरे हिस्से की दे दो

आखिर इक लड़की ने भी कुछ बोला है

************************************  

झरते पत्तों ने आखिर ये बतलाया

हर एक शज़र को बूढ़ा होना पड़ता है  

उनकी आँखों से उतरे हर आँसू से

ग़ज़लों को भी गीला होते देखा है

 

खौफ़जदा हूँ अख़बारों की ख़बरों से

आज हुकूमत ने जाने क्या सोचा है   --  ये अश आर बहुत सुन्दर लगे ॥ पुनः बधाइयाँ ॥

 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 15, 2015 at 6:01pm

आ० वामनकर जी

बहुत उम्दा  i  समीर कबीर जी की तरह मुझे भी शमशीर गलाना  समझ में नहीं आया . कृपया मार्ग दर्शन करें . सादर .  

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 15, 2015 at 11:45am
जो रह-रहकर इस सीने में उठता है
तेरा मेरा दर्द पुराना किस्सा है॥
खूब सूरत प्रस्तुति, प्रिय जीतेन्द्र जी, बधाई, सादर।
Comment by Samar kabeer on April 15, 2015 at 10:54am
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,आपकी अच्छी ग़ज़लों में एक और इज़ाफ़ा हुवा,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
यह शैर मेरी समझ में नहीं आ सका :-

"पायल की झंकार सुनाकर बातों में
बातों-बातों में शमसीर गलाता है"

कृपया समझाने का कष्ट करें |

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"सूरज के बिम्ब को लेकर क्या ही सुलझी हुई गजल प्रस्तुत हुई है, आदरणीय मिथिलेश भाईजी. वाह वाह वाह…"
2 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

कुर्सी जिसे भी सौंप दो बदलेगा कुछ नहीं-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

जोगी सी अब न शेष हैं जोगी की फितरतेंउसमें रमी हैं आज भी कामी की फितरते।१।*कुर्सी जिसे भी सौंप दो…See More
yesterday
Vikas is now a member of Open Books Online
Tuesday
Sushil Sarna posted blog posts
Monday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा दशम्. . . . . गुरु
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । विलम्ब के लिए क्षमा "
Monday
सतविन्द्र कुमार राणा commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"जय हो, बेहतरीन ग़ज़ल कहने के लिए सादर बधाई आदरणीय मिथिलेश जी। "
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"ओबीओ के मंच से सम्बद्ध सभी सदस्यों को दीपोत्सव की हार्दिक बधाइयाँ  छंदोत्सव के अंक 172 में…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, जी ! समय के साथ त्यौहारों के मनाने का तरीका बदलता गया है. प्रस्तुत सरसी…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"वाह वाह ..  प्रत्येक बंद सोद्देश्य .. आदरणीय लक्ष्मण भाईजी, आपकी रचना के बंद सामाजिकता के…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाई साहब, आपकी दूसरी प्रस्तुति पहली से अधिक जमीनी, अधिक व्यावहारिक है. पर्वो-त्यौहारों…"
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ भाईजी  हार्दिक धन्यवाद आभार आपका। आपकी सार्थक टिप्पणी से हमारा उत्साहवर्धन …"
Sunday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी छंद पर उपस्तिथि उत्साहवर्धन और मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार। दीपोत्सव की…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service