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ग़ज़ल: नूर: गोया सस्ती शराब हो बैठे.

२१२२/१२१२/२२ (सभी संभावित कॉम्बिनेशन्स)

तुम तो सचमुच सराब हो बैठे.
यानी आँखों का ख़्वाब हो बैठे
.
साथ सच का दिया गुनाह किया   
ख्वाहमखाह हम ख़राब हो बैठे.   
.
फ़िक्र को चाटने लगी दीमक
हम पुरानी क़िताब हो बैठे.
.
उनकी नज़रों में थे गुहर की तरह  
गिर गए!!! हम भी आब हो बैठे.
.
अब हवाओं का कोई खौफ़ नहीं
कुछ चिराग़ आफ़्ताब हो बैठे.
.
ऐरे ग़ैरों के मुँह लगे तो लगा     
गोया सस्ती शराब हो बैठे.
.
तब फ़रिश्तों की घट गयी कीमत
जब से वो दस्तियाब हो बैठे.
.
निलेश 'नूर'

मौलिक / अप्रकाशित  

Views: 729

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 23, 2015 at 11:28am

शुक्रिया आ. धर्मेन्द्र जी 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 22, 2015 at 10:35am

बहुत ख़ूब आ. नूर साहब। ख़ूबसूरत अश’आर हुए हैं। दाद कुबूल कीजिए

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 22, 2015 at 8:39am

शुक्रिया नीरज "नीर" जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 22, 2015 at 8:39am

शुक्रिया आ. मिथिलेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 22, 2015 at 8:39am

शुक्रिया आ. महिमा श्री जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 22, 2015 at 8:39am

शुक्रिया आ. मुकेश जी 

Comment by Neeraj Neer on April 21, 2015 at 10:28pm

वाह वाह ... 

.
अब हवाओं का कोई खौफ़ नहीं 
कुछ चिराग़ आफ़्ताब हो बैठे. 
.सब एक से बढ़ एक शेर.... हार्दिक बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 21, 2015 at 9:59pm
वाह वाह वाह आदरणीय नीलेश जी आपकी ग़ज़ल ने मुग्ध कर दिया। शेर दर शेर दाद ही दाद। झूम गया हूँ इस कलाम पे।
Comment by MAHIMA SHREE on April 21, 2015 at 8:49pm

साथ सच का दिया गुनाह किया   
ख्वाहमखाह हम ख़राब हो बैठे.   
.
फ़िक्र को चाटने लगी दीमक 
हम पुरानी क़िताब हो बैठे..........लाजबाव...

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on April 21, 2015 at 12:33pm

 वाह - सुन्दर ग़ज़ल - बधाई

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