“वो देख सामने जहां सूरज निकल रहा है , वहीँ अपना घर है, बेकार में भटका मैं दर –दर, सबने कितना समझाया था, मां - पिता और पत्नी कितना रोई थी, पर मुझे तो भगवान की तलाश करनी थी, पर कहीं नहीं मिला बल्कि लोगों ने कभी भिखारी तो कभी ढोंगी समझा, अरे भगवान् कहीं होगा तो घर में भी मिल जाएगा, अब चल वहीँ काम और ध्यान करेंगे ,चल बेटा अब घर चलें ,तूने भी बड़ा साथ निभाया , वो देख सामने नाव भी आ रही है चल तेज़ चल, और आज ही ये गेरुआ वस्त्र इसी गंगा माँ को समर्पित कर दूंगा !”
“इतना सुनते ही उस साधु का कुत्ता बड़ी जोर से भौंका जैसे उस साधु की बात का समर्थन कर रहा हो , और गंगा किनारे के पंछी आसमान में उड़ गए जैसे उनके लिए मार्ग खाली कर रहें हों !”
दोनों के जीवन में एक नया सवेरा हो चुका था !
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा को समर्थन देती इस लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय हरि प्रकाशजी.
बहुत खूब !
काश ये सब समझ पाते तो इस तरह जीवन से पलायन नहीं करते , बहुत सुन्दर आदरणीय..
आपका बहुत - बहुत आभार आ. मिथिलेश भाई ! सादर
आदरणीय हरिप्रकाश भाई जी बहुत ही बेहतरीन लघुकथा हुई है
स्वयं में भगवन है बस तलाश करना है
बधाई इस प्रस्तुति पर
आदरणीय हरी प्रकाश जी जिस प्रकार से ये रचना कम शब्दों में ही ये निर्णय कर देती है की...... इश्वर की प्राप्ति हमें भगवा पहन कर नहीं होगी वरन ये तो हमें घर में ही प्राप्त हो सकते है यदि हम सच्चे मन से उन्हें तलाश करना चाहे, ... वो बहुत ही सराहनीय है .
इस सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करे
बहुत सुन्दर , आदरणीय हरि भाई , सच बात है , असली तलाश तो खुद मे ही करना होता है , वहीं से हम सब भागे हुये हैं !! चलो किसी की आँख तो खुली , कभी हमारी भी खुलेगी ॥ आपको हार्दिक बधाई , रचना के लिये ।
achhee rachnaa
बहुत सुंदर लिखा ,आदरणीय हरिप्रकाश जी. सच! मैंने अपने आस-पास ऐसे कई ईश्वर की तलाश में भटक रहे लोगों को देखा है. और वो गृहष्थ जीवन की जिम्मेदारियों को भूल भी चुके है. प्रस्तुति पर बधाई आपको
आ० दुबे जी
तेरा साईं तुज्झ में देख सके तो देख i
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