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जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब. बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने. दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ. सादर.
जनाब रवि शुक्ला जी आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
वाह वाह बहुत खूब आदरणीय समर साहब बहुत अच्छी ग़ज़ल आपने कही शेर दर शेर दिली मुबारकबाद कुबूल करें मुझे यह बहर व्यक्तिगत तौर पर बहुत पसंद आती है इसलिए भी यह गजल अच्छी लगी मकता भी कमाल का हुआ है पुनः बधाई पेश करता हूँ
जनाब अनीस शैख़ साहिब आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
क्या खूबसूरत ग़ज़ल कही है सर आपने मज़ा आ गया ,पढ़ के ऐसा लग रहा है मानो कोई हसीन लड़की सज के सामने आ गई हो .ग़ज़ल को सजाया है आपने |
जनाब समर कबीर साहब आपकी उस्तादाना ग़ज़ल की जितनी तारीफ़ करूँ कम है दिली दादो मुबारकबाद कुबूल फरमायें
आदरणीय समर साहब, क़ामयाब ग़ज़ल हुई है.
अर्श हिलता है ,ज़मीं काँपने लगती है,यही
आह-ए-मज़लूम की तासीर बताई मैंने
निश्शब्द हूँ, साहब !
लेकिन इस खुद्दारी पर क्यों न कोई निसार हो जाए ?
मुझको पाबंदियाँ औरों की ग़वारा ही नहीं
खुद ही अपने लिए ज़ंज़ीर बनाई मैंने..
वाह !
लेकिन मुलामीयत से जो छू गया और अहसास लगातार झूमती लहरें बना झकझोर रहा है, वो ग़ज़ल का मतला है. कितना अपना-अपना सा है ! इसी सोच की बिना पर कभी मैंने भी कहा था --
सोचता हूँ जिसे वही हो क्या ?
डायरी से निकल गयी हो क्या !
ग़ज़ल खूब हुई है..
सादर
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