"क्या हुआ माते ?"
"कुछ नहीं हुआ लक्ष्मण, तुम अयोध्या में ही रहोगे।"
"मुझ से कोई भूल हो गई क्या ?"
"भूल तुमसे नहीं श्री राम से हो गई थी, जिसे सुधारने का प्रयास कर रही हूँ।"
"भूल और मर्यादा पुरुषोत्तम से ? मैं कुछ समझा नहीं माते।"
"उर्मिला के हृदय में झाँकोगे तो समझ जाओगे लक्ष्मण।"
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
इस लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में किन लंगड़ी भावनाओं की मजम्मत हुई है इसका अहसास होते ही दिल खिल उठता है आदरणीय योगराजभाईजी. आपने सटीक वाक्यों के हवाले से उर्मिला की भावदशा को अभिव्यक्त कर दायित्वबोध की आड़ में चल रहे भावमर्दन की परिपाटी के उछाह पर सार्थक उंगली उठायी है. यह आवश्यक भी है. लक्ष्मण का सीता और राम के साथ वन जाना, उचित है या अनुचित यह बाद का विषय है. सर्वोपरि, इसकी ओट में किसी के प्रति बन रहे असहज व्यवहार का महिमा-मण्डन न हो. अनुचित प्रश्रय न मिले लघुकथा का हेतु यहाँ है.
इस संवेदना केलिए हार्दिक बधाई, आदरणीय.
कतिपय पाठक पौराणिक कथा का संदर्भ लेकर लघुकथा के व्यवहार और विन्यास तो छोड़िये, वज़ूद पर ही प्रश्न उठाते दिख रहे हैं. अच्छा है, कि, यह मंच शिष्ट वाद-विवाद, चर्चा-परिचर्चा को प्रश्रय देता है. इसी से नये सदस्य अपनी साहित्यिक समझ को पुख़्ता करते हैं.
वस्तुतः साहित्य की रचनाओं के बिम्ब आज के यथार्थ के सूत्र को बाँधने के इंगित देते हैं, न कि इनका हेतु इतिहास का निर्माण या ध्वंस हुआ करता है. इतिहास से एक पल ले कर उसे आजके संदर्भ में प्रस्तुत करना, ताकि सुधार केलिए एक वातावरण तारी हो, रचनाप्रक्रिया का उद्येश्य होता है.
अच्छा हो, कि हमारे पाठक कुछ अच्छी साहित्यिक पत्रिकाएँ भी पढ़ें. यदि नहीं, तो इसी ओबीओ पर विगत में इतनी सघन रचनायें प्रस्तुत हो चुकी हैं, उनका ही अध्ययन किया जाये. आयोजनों के संकलन से भी पद्य रचनाओं को उठाया जा सकता है. फिर उन पर समझ आयी टिप्पणी दी जाये ताकि उनकी समझ के स्तर का भी पता चले. लेकिन दुःख होता है कि नये हस्ताक्षर पढ़ते कम हैं, या पढ़ते ही नहीं हैं. तभी तो, तनिक गहन रचना हुई नहीं कि उनकी समझ लसर जाती है. ऐसे किसी रचनाकार से किस रचना की उम्मीद की जा सकती है ? क्या छन्द विधान या अरुज़ के नियमों का रट्टा मार लेने से कोई कवि या ग़ज़लकार हो जायेगा ? छन्द जानना या अरुज़ समझना तो पहला पग है रचनाकर्म की यात्रा में !
शुभ-शुभ
बिम्बों के माध्यम से कथा अपने मर्म को अभिव्यक्त करते हुए गहरे तक सोचने के लिए विवश करती है.
बहुत बहुत बधाई इस सफल लघुकथा की प्रस्तुति पर
आ. लघुकथा को कई बार पढ़ा सभी आ. जनों के कमेन्ट भी पढ़े!
//भूल तुमसे नहीं श्री राम से हो गई थी, जिसे सुधारने का प्रयास कर रही हूँ//" मै इस वाक्य से सरासर असहमत हूँ!
//इस बार बनवास सीता को मिला था// कथा को इस दृष्टि से रखने का औचित्य भी मुझे समझ में नही आया... माता सीता को वनवास हुआ..और फिर श्री राम और लक्ष्मण उनके साथ चलने को तैयार हुए..तभी उन्हें(माता सीता को ) अपनी नैतिक ज़िम्मेवारी या कर्तव्य (उर्मिला और लक्ष्मन के प्रति )का भान हुआ या फिर एक नारी के रूप में वनवासी होने पर ही उन्हें एक नारी के विरह के दुःख का अहसास हुआ?? और क्या श्री रामजी इसके प्रति सचेत नही थे??
भूल श्री राम जी से कैसे हुयी??क्या उन्होंने लक्ष्मण को वनवास में साथ चलने से हर प्रकार से रोकने का प्रयास नही किया था?? बल्कि उन्होंने तो माता सीता को भी हर प्रकार से साथ में न चलने के लिए मनाने का प्रयास भी किया था!...प्रभु श्री राम का लक्ष्मन को हर तरह से रोकने का प्रयास उन सभी कर्तव्यों के पालन के ही संदर्भ में ही तो है चाहे वो माता-पिता के प्रति हो या पत्नी उर्मिला के प्रति!.....पर लक्ष्मन जी ने बड़े भाई के प्रति ही अपने को समर्पित करने का निर्णय किया,जो तत्काल का भी नही था कथा में माता सुमित्रा ने बचपन में उनसे सदैव बड़े भाई के साथ रहने और सेवा के लिए कहा था,यानि लक्ष्मन जी माँ के वचन और अपने धर्म से बंधे है!!..अब सीधे तौर पे उर्मिला की ज़िम्मेवारी लक्ष्मन जी पर आती है... लक्ष्मन जी ने सेवक धर्म का हवाला देकर उर्मिला से वचन लिया की आप अयोध्या में ही रहें!क्यूंकि जाहिर तौर पर अन्यथा वनवास के दौरान सेवकधर्म निभाने में व्यवधान आता..दूसरा माता कैकेयी,माता सुमित्रा,आदि के प्रति सबकी अनुपस्थिति में ज़िम्मेवारी का भी भान कराया!
अब बात आती है माता सीता व् उर्मिला में किसका त्याग बड़ा था, तो सदा से ही माता उर्मिला के त्याग को माता सीता के त्याग से बड़ा माना गया है चूँकि श्री राम प्रभु और माता सीता का चरित्र कथा में मुख्य है तो माता सीता के त्याग के उदाहरण ज्यादा दिए जाते है..माता सीता के त्याग को ज्यादा बार सुना/गाया कहा जाता है!
उर्मिला के प्रति मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से भूल की बात का तो प्रश्न ही नही उठता हाँ धोबी द्वारा चरित्र पर आक्षेप लगाने के बाद माता सीता को त्यागने का प्रश्न अलग है!!
एक स्त्री की पीड़ा को जितना एक स्त्री समझ सकती है और कोई नहीं ये जितना शत प्रतिशत सत्य है वहीँ हम उन स्त्रियों के स्वभाव को क्या कहें जिन्होंने इस वनवास जैसे प्रकरण को जो बाद में राम रावण के युद्द तक पँहुचा ,जन्म दिया| मंथरा ,कैकयी,के साथ मैं सीता को भी गिनुंगी जिन्होंने उर्मिला के आंसूं नहीं देखे, जब वो राम के बिना नहीं रह सकती थी तो उर्मिला की अंतरात्मा की आवाज उन्हें क्यूँ सुनाई नहीं दी |शायद इन्हीं भावों ने ,आत्ममंथन ने लेखक को इस तथ्य पर इस विषय पर लिखने के लिए प्रेरित किया है इसका शीर्षक प्रायश्चित भी कहें तो दो राय नहीं होगी | आ० योगराज जी ,ये आपकी संग्रहणीय लघु कथा है जिसके लिए आपकी लेखनी को नमन आपको नमन |
वाह !आदरणीय वास्तव में ये प्रश्न विचारणीय है कि सीता व् उर्मिला में किसका त्याग बड़ा है |कहने वाले कहेंगे की सीता ने सब सुख त्याग पति के साथ सुख-दुःख बांटें और अंत में भी उन मर्याद -पुरुष का भरोषा नहीं जीत पाई |पर क्या उर्मिला ने भी एक प्रकार से पति -की उपेक्षा नहीं झेली |जैसा आपने कहानी में इंगित किया अगर ऐसा पहले होता तो शूपणखा की नाक काटने ,सीता हरण ,तथा धोबी द्वारा उनके चरित्र पर आक्षेप लगाने जैसी घटना भी नहीं होती यानि राम शायद पुरुषोतम नहीं होते |
रचना एवं रचनाकार को करबद्ध प्रणाम
"भूल और मर्यादा पुरुषोत्तम से ? मैं कुछ समझा नहीं माते।"
"उर्मिला के हृदय में झाँकोगे तो समझ जाओगे लक्ष्मण।"
वाह आदरणीय योगराज सर बहुत ही सुंदर गहन भावों की ये लघु कथा बनी है । अंतिम पंक्ति इस कथा के बारे में सोचने के मज़बूर करती है। इस सुंदर लघु कथा के लिए हार्दिक हार्दिक बधाई सर।
//उर्मिला के ह्रदय में झाँकोगे तो समझ जाओगे लक्ष्मण// , ये पंक्तियाँ अपने आप में ही सम्पूर्ण लघुकथा का सार हैं | बेहतरीन लघुकथा , उम्दा शीर्षक | ऐसा बहुधा देखने को मिल जाता है कि किसी बड़े के साये तले पता नहीं कितने छोटे अपना वज़ूद खो देते हैं और उनको इतिहास में कोई याद करने वाला ही नहीं होता | बहुत बहुत बधाई आदरणीय इस लघुकथा के लिए ..
आ.योगराज प्रभाकर जी ,,कथा का सार तो अपने बखूबी दिया है ,,किन्तु लघुकथा का शीर्षक ,,,,उचित है ??कृपया मेरी जिज्ञासा को शांत करें ,,,सर |
आ० अनुज
कथा के बार में सुधीजन बहुत कुछ कह चुके पर मेरी जिज्ञासा यह है कि यह अंतर्ज्ञान सीता को तब क्यों नहीं हुआ जब राम को बनवास हुआ था, मानस में सीता कहती हैं - जंह लगि नाथ नेह अरु नाते i पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते I
तनु धनु धाम धरनि पुर राजू I पति बिहीन सब शोक समाजू --और सीता का प्रलाप यहाँ तक चला कि - अस कहि सीय बिकल भइ भारी . बचन वियोग न सकी सम्भारी .
देखि दशा रघुपति जिय जाना . हठि राखे नहि राखिहि प्राना ii --और राम लक्ष्मण सीता सहित वन चले गए . सीता के सारे तर्क के अपने लिए थे तब उर्मिला के बारे में किसने सोचा , स्वयं उसके पति ने भी नहीं क्या उसने परित्यक्ता का जीवन जिया . आभारी हूँ मैंथिलीशरण गुप्त जी का जिन्होंने उर्मिला के लिये आंसू गिराए जो साकेत लिखते समय उनकी आँखों से स्वतः टपके . सीता से मेरी यही शिकायत है . बाकी आपकी कथा अपना प्रभाव तो छोडती ही है . सादर .
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