"जानती है ? नया मेहमान आने वाला है सुनकर, माँ-बाबूजी कितने खुश हैं । "
"और आप ? "
" हाँ , माँ कह रही थीं , बड़ी भाभी की दोनों संतानें लड़कियाँ हैं, इसलिए बहू से कहना कि वह सिर्फ़ बेटा ही जने । "
"आपने क्या कहा ? '
"कहना क्या ? मैं माँ से अलग थोड़े हूँ , और तू भी माँ की इच्छा के विरूद्ध तो जाने से रही ।"
"सो तो है , पर माँ जी की इच्छा पूरी हो , उसकी जवाबदेही आपके ही हाथों में है । "
"मेरे हाथों में ? पागल हो गई है क्या ? '
"लो भई ! साइंस ग्रेजुएट हो । इतना भी नहीं जानते , फसल वही उगती है , जिसका बीज़ डाला जाता है ।अब सरसों बोकर गन्ना तो नहीं उगा सकते न ? "
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत ही बढ़िया और प्रभावशाली लघुकथा कही है आ० शशि बांसल जी। स्त्री को अबला के बोसीदा चोले से निकाल कर जिस तरह एक सशक्त रूप में प्रस्तुत किया गया है, वह न केवल प्रशंसनीय ही है अपितु अनुकरणीय भी है। नारी को रूढ़ियों का विरोध करना आना चाहिए। लीक से हटकर कही किसी भी सार्थक कृति को सलाम किया जाना चाहिए अत: एक लघुकथा को तौर पर इस अर्थगर्भित अभिव्यक्ति को मैं पाँच स्टार देना चाहूंगा। भाई विनोद खनगवाल जी की प्रतिक्रिया पर भाई मिथिलेश जी एवं आ० कांता रॉय जी के तर्क अकाट्य हैं, जिनका मैं भी समर्थन करता हूँ।
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, अनकहा भी कहे पर ही निर्भर करता है। जब अनकहे पर इतना शोध कर ही लिखा है तो यह भी स्पष्ट कर दीजिए किस लिहाज से कथा का अनकहा अपनी कही बातों पर खरा उतरता है?
शायद मेरा ध्यान उस तरफ नहीं जा पाया हो।
आदरणीय विनोद जी, क्षमा चाहता हूँ कि अपनी बात आपको स्पष्ट नहीं समझा पाया किन्तु आपकी बात से मैं पूर्णतः असहमत हूँ. खैर ये अपनी अपनी पाठकीय सोच है... अब देखियें न जिसे आप एक लड़की का अपमान मान रहे है वह मेरी दृष्टि में प्रतीकों का उत्कृष्ट प्रयोग है. सादर
//केवल पत्नी अपने आपको आरोप लगने से बचाने के लिए तर्क दे रही है न कि अपने पेट में पलने वाले बच्चे(हो सकता है लड़की भी हो) के साथ खड़ी नजर नहीं आ रही है ।//
उस तर्क के मर्म तक शायद मैं खुद को पहुँचा हुआ महसूस कर रहा हूँ.दरअसल बिम्ब और प्रतीकों के प्रयोग से जो लघुकथा में अनकहा रह जाता है वहीँ लघुकथा को सशक्त बनता है. इस बात का उल्लेख कई बार हुआ है यथा -
दिनांक 17/02/2008 अंतर्राष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन रायपुर द्वितिय सत्र में ‘लघुकथा का वर्तमान’ विषय पर डॉ. अशोक भाटिया ने बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया। श्री भाटिया ने संवेदना से संचालित रचनात्मक विवेक को प्राथमिकता दी। लघुकथा में कुछ अनकहा भी रह जाता है। यह अनकहा लघुकथा को सशक्त बनाता है।
‘लघुकथा के नए आयाम’ में सूर्यकान्त नागर कहते है कि वस्तुत: लघुकथा में जो अनकहा रह जाता है या जिसके कहने से लेखक अपने को बड़ी चतुराई से बचा लेता है, वही महत्त्वपूर्ण और माननीय होता है।
पंजाबी साहित्य अकादमी,लुधियाना 15 अप्रैल 2007 को पंजाबी साहित्य अकादमी के सभागार में अंतर्राष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन में डा॰सूर्यकान्त नागर ने सचेत किया कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पादों के साथ अपने विचारों को भी हमारे मन-मस्तिष्क पर थोप रही हैं। रचना कला एवं रचनात्मक कल्पना के साथ हमारे सामने आए। रचना में जो कुछ अनकहा होता है , वही रचना की सबसे बड़ी ताकत है।
अपने आलेख में डॉ0 शंकर पुणतांबेकर कहते है प्रभावात्मक शैली के अनोखेपन में हैं–सूचकता, सांकेतिकता और व्यांग्यात्मकता। सपाटबयानी में कथ्य कमज़ोर बना रह जाता है। अभिधा शक्ति की अपनी सीमा है, व्यंजना शक्ति की नहीं। व्यंजना बिंब–प्रतीक से लेकर लोककथा–पुराणकथा–इतिहासकथा सभी को वैदग्ध्य की दृष्टि से अपनाती है।
आदरणीय योगराज प्रभाकर सर अपने आलेख ने लिखते है –
लघुकथा में जो कहा जाता है वह तो महत्वपूर्ण होता ही है, किन्तु उससे भी महत्वपूर्ण वह होता है जो "नहीं कहा जाता". लघुकथाकारों के लिए इस "जो नहीं कहा जाता" को समझना बहुत आवश्यक है। दरअसल इसके भी आगे तीन पहलू हैं जिन्हें आसान शब्दावली में कहने का प्रयास किया है :
१. "जो नहीं कहा गया" - अर्थात वह इशारा जिसके माध्यम से एक सन्देश दिया गया हो या बात को छुपे हुए ढंग या वक्रोक्ति के माध्यम से कही गयी हो।
सादर
//लघुकथा में लड़के की सोच रखने वाले पति और उसकी माँ पर कोई व्यंग्य किया गया होता जिससे उनको भी अपनी सोच पर सोचना पड़े तो कथा का रंग ही अलग होता जोकि कथा में स्पष्ट नहीं हो पाया है//
आदरणीय विनोद जी लघुकथा को एक बार पुनः पढ़ जाइए शायद आपको अपने इस कथन में संशोधन करना पड़े. शायद साइंस ग्रेजुएट के व्यंग्य और मंतव्य का आशय स्पष्ट नहीं हुआ है?
बहुत ख़ूब !!!! बधाई !
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