अतिशय उत्साह
चाहे जिस तौर पर हो
परपीड़क ही हुआ करता है
आक्रामक भी.
व्यावहारिक उच्छृंखलता वायव्य सिद्धांतों का प्रतिफल है
यही उसकी उपलब्धि है
जड़हीनों को साथ लेना उसकी विवशता
और उनके ही हाथों मुहरा बन जाना उसकी नियति
मुँह उठाये, फिर, भारी-भरकम शब्दों में अण्ड-बण्ड बकता हुआ
अपने वायव्य सिद्धांतो को बचाये रखने को वो
इस-उस, जिस-तिस से उलझता फिरता है.
भाव और रूप.. असंपृक्त इकाइयाँ हैं
तभी तक, लेकिन, सहिष्णुता के प्रमाद में
’ब्राह्मणवाद’ का मुखौटा न धार लें
जो सोच और स्वरूप में डिस्क्रिमिनेशन को हवा देता है
स्वयं को ’श्रेष्ठ’ समझने और समझवाने का कुचक्र चलता हुआ
अपनी प्रकृति के अनुसार ही !
फिर निकल पड़ता है हावी होने
अपने नये रूप और नयी चमक के साथ
पूरे उत्साह में !
’ब्राह्मणवाद’ हर युग में सुविधानुसार अपनी केंचुल उतारता है
आजकल ’पद-दलितों और पीड़ितों’ की बातें करता है
अतिशय उत्साह में..
**************************
-सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ सर, गहन चिंतन का प्रतिफलन हुआ करती है ऐसी रचनाएँ. जो भीतर तक झिंझोड़ भी देती है और रचनाकार के शब्द चातुर्य पर मुग्ध हुए जाने को उकसाती भी है. 'ब्राह्मणवाद' शब्द का ऐसा प्रतीकात्मक प्रयोग पहली बार किसी रचना में देख रहा हूँ. ये शब्द इसके मूल अर्थ से बिलकुल भिन्न आडम्बरों और स्वेच्छाचार से पगे हुए खोखले अतिवादी सिद्धांतों के 'तथाकथित वाद' का प्रतीक बनकर उभरा है. इस रचना में 'ब्राह्मणवाद' को 'ब्राह्मणवाद' मानना रचना को नितांत गलत दिशा में खोलते हुए जाना है. इस 'ब्राह्मणवाद' में 'ब्राह्मणवाद' के तत्व अवश्य समाहित है किन्तु इसका अर्थ विस्तार इसके शाब्दिक अर्थ से कई बड़े आयाम पर रचना को ले जा रहा है. यही एक रचनाकार का चातुर्य भी है और कौशल भी.
यह सही है कि जब कोई वाद, अतिवाद हो जाता है, वादी अतिवादी हो जाता है तो केवल वहां विवाद ही उत्पन्न होता है वो भी विचार शून्यता से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता. सीधा सा मतलब होता है केवल एक वृत्त में चक्कर लगाना, जिससे किसी लक्ष्य तक नहीं पहुँचा जा सकता है. यह अवश्य है कि ऐसी अतिवादी सिद्धांत केवल 'जड़हीनों' को अपने साथ लिए जाते है. बढ़िया सवारी कराते है ऐसे 'जड़हीनों' को. सवारी करते हुए ये जड़हीन स्वयं कब इसके संवाहक बनकर इस्तेमाल की चीज बन जाते है, इसका इन्हें भी पता नहीं चलता है. और फिर लग जाते है ये जड़ हीन अतिवादी मुंह उठाके अण्ड-बण्ड बकने. यह अवश्य है कि ऐसे जड़हीन अपनी वैचारिक भूख को शांत करने का जरिया बना लेते है इस बकवास को. भला कहीं बकवास से भी ये भूख शांत हुआ करती है. बिलकुल सही कहा है सर, ऐसे लोगों को ईश्वर सद्बुद्धि दे, हम तो इतनी ही प्रार्थना कर सकते है...... इन 'जड़हीनों' को ही 'ब्राह्मणवादी' बनाकर पुनः अपने प्रतीक में जिस चतुराई से सम्मिलित किया है, देखकर मुग्ध हूँ.
और रचना यहाँ दीवाना बना देती है जब रचना ऐसे अतिवादियों की 'विशिष्ट-गुणों' की कलई खोलते हुए उनकी वास्तविकता को सामने लाती है. ऐसे अतिवादी स्वयं को श्रेष्ट समझने या सिद्ध करने में बौराए से फिरते है. ये जड़हीन हर युग में कई कई रूपों में प्रकट हुआ करते है, कई कई झंडें लेकर..... पीले झंडे का जड़हीन जो कल तक नीले झंडे को कोसता था अब उसी नीले झंडे को डंडे में पो कर हजार हजार टेसुए बहाए जा रहा है. लेकिन भैये अब ये अतिशय उत्साह छोड़ना होगा. ऐसे जड़हीन ये क्यों भूल जाते है कि ग़ालिब चचा कह गए है कि
ग़ालिब-ए-खस्ता के बगैर कौन से काम बंद हैं,
रोईये जार जार क्या ,कीजिये हाय हाय क्यूँ
आदरणीय सौरभ सर, एक पाठक के तौर पर इस रचना का जैसा और जो समझ कर आनंद लिया, उसे ही शाब्दिक किया है. हो सकता है रचना उस स्तर तक नहीं समझ पाया हूँगा जैसा रचनाकार का मंतव्य हो लेकिन यह अवश्य है कि ऐसी रचनाएँ पाठकीय छूट का लाभ भी साथ में लेकर आती है. रचना का मर्म दिमाग को झकझोर देता है और रचना अपनी गहराई और सांद्रता के साथ मस्तिष्क को उद्द्वेलित भी करती है लेकिन जिस तरह से रचनाकार शब्द चातुर्य और प्रतीकात्मकता से व्यंग्य का सृजन करता है, वह भी मेरे जैसे पाठक को मुग्ध करती है. आप को हँसी आएगी लेकिन इस रचना ने मुझे सोचने के लिए विवश अवश्य किया है किन्तु कहीं ऐसे जड़हीनों पर हुए व्यंग्य के शब्द चातुर्य ने गुदगुदाया भी है. इस रचना पर 'गुदगुदाया' शब्द का प्रयोग हो सकता है कई पाठकों को उचित न लगे लेकिन आप मेरे कथ्य के मर्म को समझेंगे इसका पूरा यकीन है. झंडों और नारेबाजी से दूर बिना शोर मचाये रचनाएँ कितना कुछ कह सकती है, कितना प्रभाव पैदा कर सकती है इसका उदाहरण सदैव मैं इस रचना से दूंगा. इस रचना की प्रस्तुति पर एक पाठक की बधाई.... और एक अभ्यासी के तौर पर आभार भी....... नमन
आदरणीय सुशील सरनाजी, आपने रचना को समय व मान दिया मैं आपका आभारी हूँ
सादर आभार
भाई शिज्जू जी, बिना चीखम्चिल्ली मचाये भी रचनाएँ अपना काम करती हैं. यही इनसे अपेक्षित है. आपको एक पाठक के तौर पर मेरा प्रयास सार्थक लगा यह मेरे लिए भी तोषकारी है.
शुभ-शुभ
आदरणीय विजय प्रकाशजी,
//पहले कभी नहीं था-ब्राह्मण वाद //
वर्ण विशेष की सदाशयता एक ओर, इसकी धमक को मैंने ’स्मृतियों’ के पन्नो में भी महसूस किया है. इसके रूप बदलते रहे हैं.
प्रभु कृष्ण के आधुनिक अनुयायी की माया को आपके साथ-साथ मैं ही नमस्कार करता हूँ.
आपने रचना को समय दिया आपका अभारी हूँ
आदरणीय विजय शंकरजी,
//दो बातें सदैव याद रखनी चाहिए , राजनीति समाज का अंग होता है , समाज राजनीति का अंग नहीं, द्वितीय , राजनैतिक फैसले स्थायी नहीं होते हैं। //
पहली बात भारतीय संविधान की प्रस्तावना के विरुद्ध है. विशेषकर समाज राजनीति का अंग नहीं
दूसरी बात इस कविता के परिप्रेक्ष्य में कैसे है ? इस कविता में राजनीतिक फैसलों पर चर्चा मेरी समझ से नहीं हुई है. अलबत्ता, युग-युगान्तर की बात हो रही है.
रचना शब्द सापेक्ष मात्र नहीं है आदरणीय.
आपने इस प्रस्तुति के सापेक्ष अपने विन्दु रखे, आदरणीय, मैं अनुगृहित हुआ.
सादर
आदरणीया कान्ताजी, कविता के कथ्य में वर्णित ’जड़हीन’ समाज की पीड़ित, शोषित, पद-दलित या वज़ूद केलिए हाहाकार करती इकाइयाँ नहीं हैं. फिर कौन है ये ’जड़हीन’ जो ढोंग और अहंमन्यता के लिए संबल की तरह प्रयुक्त हो जाते हैं ?
इस कविता के सापेक्ष उनको लेकर सोचियेगा.
सादर
आदरणीय सौरभ जी वर्तमान सन्दर्भ में आज की परिस्थितिजन्य परिवर्तन की चलती बयार के आंतरिक भावों को एक कटु यथार्थ के साथ चित्रित करती इस सार्थक अतुकांत रचना की प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई। रचना के अंतिम चरण की ये पंक्तियाँ-
''’ब्राह्मणवाद’ हर युग में सुविधानुसार अपनी केंचुल उतारता है
आजकल ’पद-दलितों और पीड़ितों’ की बातें करता है
अतिशय उत्साह में..
रचना का सार हैं। पुनः इस संवेदनशील विषय पर आपकी प्रस्तुति को बन्दे का हार्दिक सलाम _/\_
आदरणीय सौरभ सर इस रचना के लिये आपने जो विषय चुना है वो मैं समझता हूँ कि बड़ी हिम्मत का काम है, आपने अपने विचारॊं को बड़े नपेतुले अंदाज़ में पेश किया है बहुत बहुत बधाई इस सार्थक रचना के लिये
पहले कभी नहीं था-ब्राह्मण वाद-
यह अंबेडकरवाद की सृजनात्मक आक्रामकता से विस्तारित होता गया.कंसीराम तथा मायावती की माया आज ब्राह्माणवाद संसद में समाया.पिच्छड़े को संगठित करने में काम आया. समाज को बाँटने में बहुत रास आया. सब दलित प्रभु क्रिस्न की माया.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online