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ग़ज़ल - आइनों से पत्थरों के वास्ते ( गिरिराज भंडारी )

 2122        2122        212 

खुशनुमाँ से अवसरों के वास्ते

आसमाँ तो हो परों के वास्ते

 

मै तो आईना लिये फिरता हूँ अब

आइनों से पत्थरों के वास्ते

 

अब तो दीवारें गिरायें यार हम

गिर रहे हैं उन घरों के वास्ते

 

थोड़ी अकड़न भी अता करना ख़ुदा

बे सबब झुकते सरों के वास्ते

 

कुछ बहाने और हैं, ले जाइये

आदतन से कायरों के वास्ते

 

मैं हक़ीकत बाँध के लाया हूँ आज 

कुछ छिपे अंदर डरों के वास्ते

 

बस दुआ ही हाथों में अपनें बची

राह भूले रहबरों के वास्ते 

 

एक पीपल मैं लगा आया तो हूँ    

मौन साधे खँडहरों के वास्ते

 

जुगनुओं में आज ये चर्चा हुआ

वो जलेंगे तम - दरों के  वास्ते

*****************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 24, 2015 at 12:19pm

आदरणीय गिरिराज सर, बेहतरीन ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं ..

इन दो अशआर ने मन मोह लिया .... दिल जीतू शेर हुए है-

थोड़ी अकड़न भी अता करना ख़ुदा

बे सबब झुकते सरों के वास्ते........... वाह शानदार 

 

कुछ बहाने और हैं, ले जाइये

आदतन से कायरों के वास्ते............. वाह वाह 

इनके लिए विशेष बधाई.

सादर 

Comment by ajay sharma on September 23, 2015 at 10:25pm

bahut khoob .....sir ji 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 23, 2015 at 8:51pm

आ० अनुज . बढ़िया कहन .

Comment by Ravi Shukla on September 23, 2015 at 1:19pm

आदरणीय गिरिराज जी नमस्‍कार

सुन्‍दर गज़ल कही है आपने बधाई स्‍वीकार करें

थोड़ी अकड़न भी अता करना ख़ुदा

बे सबब झुकते सरों के वास्ते  बहुत खूब  कुछ दिन पहले की अखबार की एक खबर याद आ गई

अाखिरी शेर में तम हिन्‍दी भाषा के शब्‍द अनुसार ही प्रयोग हुआ है न

आदरणीय भाई जी अब हम उस हिन्‍दी ग़ज़ल का क्‍या करे जो कल से हमारे दिमाग में चल रही है जिसमें ओं काफिया और के लिये रदीफ लिया है तीन  शेर हो भी गये है और अरकान भी यही है । :-)

खैर इस ग़ज़ल के लिये दिली दाद हाजिर है ।

Comment by Shyam Narain Verma on September 23, 2015 at 10:55am

 इस सुंदर ग़ज़लक़े लिए हार्दिक बधाई

 सादर ,

कृपया ध्यान दे...

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