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घाव खोल कर बैठ न जाना -( ग़ज़ल )-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

ग़ज़ल

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2222    2222    2222    222
********************************
आग लगाई क्या अपनों ने अरमानों के मेले में
बैठ गया जो आँसू  लेकर  मुस्कानों  के मेले में /1

कर के बहाना सब मरहम का दुखती  रग को छेड़ेंगे
घाव खोल कर  बैठ न  जाना  पहचानों  के  मेले में /2

छोड़ गए हैं अपने अकेला एक अपाहिज बोझ समझ
अब्दुल्ला  सा  मन  होता  है  अनजानों  के  मेले में /3

जब तक जेब भरी थी अपनी घर आगन सब अपना था
जेबें   खाली  तो  बदला  सब  अनजानों   के  मेले  में /4

होड़ लगी है जा देने की थाम ले दिल को रूखसत तक
आज  शमा  भी  खूब  जलेगी   परवानों  के  मेले  में /5

यार जवानी के जंगल में मत इतना भी शोर मचा
प्रीत बदलते देर न  लगती  अफसानों  के मेले में /6

मदहोशी तो खूब मिली है  लेकिन मन का चैन गया
मंदिर मस्जिद  ढूंढ  रहा  मन  मयखानों  के मेले में /7

मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 19, 2015 at 11:57am


आ0 भाई ष्यामनारायण जी धन्यवाद।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 19, 2015 at 11:56am

आ0 निधि जी उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।

Comment by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on December 17, 2015 at 8:13pm

 आदरणीय धामी जी .............बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है बधाई 

Comment by Saarthi Baidyanath on December 17, 2015 at 2:03pm

बैठ गया जो आँसू  लेकर  मुस्कानों  के मेले में, बहुत बढ़िया जनाब ! वाह !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 17, 2015 at 12:01am

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, बढ़िया ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई 

Comment by Samar kabeer on December 16, 2015 at 10:29pm
जनाब लक्ष्मण धामी जी,आदाब,अच्छी ग़ज़ल से नवाजा है आपने मंच को,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
Comment by Sushil Sarna on December 16, 2015 at 7:35pm

मदहोशी तो खूब मिली है लेकिन मन का चैन गया
मंदिर मस्जिद ढूंढ रहा मन मयखानों के मेले में /7
वाह सर वाह बहुत ही खूबसूरत अशआर कहे हैं ग़ज़ल में आपने .... फ़िदा हो गए हम तो आपकी कलम के ... हार्दिक बधाई सर।

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on December 16, 2015 at 7:00pm
वाह्ह्ह्ह् आ.धामी सर बहुत अच्छी ग़ज़ल हुयी है...जेब खली तो सब बदला अंजानो के मेले में।वाह्ह्ह्ह्।
Comment by Shyam Narain Verma on December 16, 2015 at 5:33pm

 इस सुंदर ग़ज़लक़े लिए हार्दिक बधाई
Comment by Nidhi Agrawal on December 16, 2015 at 3:02pm

बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई मुसाफ़िर साहब.. आदाब अर्ज है !! 

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