ग़ज़ल
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आग लगाई क्या अपनों ने अरमानों के मेले में
बैठ गया जो आँसू लेकर मुस्कानों के मेले में /1
कर के बहाना सब मरहम का दुखती रग को छेड़ेंगे
घाव खोल कर बैठ न जाना पहचानों के मेले में /2
छोड़ गए हैं अपने अकेला एक अपाहिज बोझ समझ
अब्दुल्ला सा मन होता है अनजानों के मेले में /3
जब तक जेब भरी थी अपनी घर आगन सब अपना था
जेबें खाली तो बदला सब अनजानों के मेले में /4
होड़ लगी है जा देने की थाम ले दिल को रूखसत तक
आज शमा भी खूब जलेगी परवानों के मेले में /5
यार जवानी के जंगल में मत इतना भी शोर मचा
प्रीत बदलते देर न लगती अफसानों के मेले में /6
मदहोशी तो खूब मिली है लेकिन मन का चैन गया
मंदिर मस्जिद ढूंढ रहा मन मयखानों के मेले में /7
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आ0 भाई ष्यामनारायण जी धन्यवाद।
आ0 निधि जी उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय धामी जी .............बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है बधाई
बैठ गया जो आँसू लेकर मुस्कानों के मेले में, बहुत बढ़िया जनाब ! वाह !
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, बढ़िया ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई
मदहोशी तो खूब मिली है लेकिन मन का चैन गया
मंदिर मस्जिद ढूंढ रहा मन मयखानों के मेले में /7
वाह सर वाह बहुत ही खूबसूरत अशआर कहे हैं ग़ज़ल में आपने .... फ़िदा हो गए हम तो आपकी कलम के ... हार्दिक बधाई सर।
इस सुंदर ग़ज़लक़े लिए हार्दिक बधाई |
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई मुसाफ़िर साहब.. आदाब अर्ज है !!
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