For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

माना कि धूप में भी तो साया नहीं बने - गजल (लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’)

2212 1211 2212 12

***********************

पतझड़ में अब की बार जो गुलजार हम भी हैं
कुछ कुछ चमन के यूँ तो खतावार हम भी हैं /1

रखते हैं चाहे मुख को सदा खुशगवार हम
वैसे  गमों  से  रोज ही  दो   चार  हम भी हैं /2

माना कि धूप में भी तो साया नहीं बने
तू देख अपने ज़ह्न में,ऐ यार हम भी हैं /3

तू ही नहीं अकेला जो दरिया के घाट पर
नजरें उठा के देख कि इस पार हम भी हैं /4

जब से  कहा  है आपने  बेताज हो गए
कहने लगे हैं लोग कि गलहार हम भी हैं /5

पत्थर उठा के सोच रहा आइना हैं क्या
टूटे न  जलजले  में वो  दीवार  हम भी हैं /6

21 दिसम्बर
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

Views: 758

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 24, 2015 at 10:39am

आ० भाई श्याम नारायण जी ग़ज़ल का अनुमोदन करने के लिए हार्दिक आभार l


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 23, 2015 at 7:26pm

तू ही नहीं अकेला जो दरिया के घाट पर
नजरें उठा के देख कि इस पार हम भी हैं /...वाह्ह्ह्ह  बहुत सुन्दर 

बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आ० लक्ष्मण भैया जी 

Comment by Ravi Shukla on December 23, 2015 at 1:32pm

आदरणीय लक्ष्मण जी , शानदार ग़ज़ल हुई है. दाद ओ मुबारकबाद कुबूल करें

रखते हैं चाहे मुख को सदा खुशगवार हम
वैसे ( होते) गमों  से  रोज ही  दो   चार  हम भी हैं    क्‍या ये शब्‍द अर्थ के निकट लग रहा है । कृपया देख्‍ेा

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 23, 2015 at 10:13am
अच्छे अश’आर हुए हैं धामी साहब, दाद कुबूल करें
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 22, 2015 at 5:29pm
आदरणीय लक्ष्मण जी बहुत उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई हाज़िर है

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 22, 2015 at 12:11am

आदरणीय लक्ष्मण सर जी, शानदार ग़ज़ल हुई है. दाद ओ मुबारकबाद 

Comment by Samar kabeer on December 21, 2015 at 10:41pm
जानब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी,आदाब,बहुत ही उम्दा ग़ज़ल है आपकी,अच्छे अशआर निकाले हैं आपने इस ज़मीन में,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
एक मिसरे की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा :–

"अपने जहन में देख मगर यार हम भी हैं"

:– इस मिसरे में आपने 'जहन' शब्द लिया है,सही शब्द है "ज़ह्न" ,एक मिसरा सुझाव के तौर पर पेश कर रहा हूँ ,देख लीजियेगा :–

"तू देख अपने ज़ह्न में,ऐ यार हम भी हैं"

बाक़ी शुभ–शुभ ।
Comment by Sushil Sarna on December 21, 2015 at 8:46pm

पतझड़ में अब की बार जो गुलजार हम भी हैं
कुछ कुछ चमन के यूँ तो खतावार हम भी हैं /1
रखते हैं चाहे मुख को सदा खुशगवार हम
वैसे गमों से रोज ही दो चार हम भी हैं /2

निःशब्द हूँ आदरणीय आपकी कल्पना,सोच और खूबसूरत इस ग़ज़ल की प्रस्तुति पर .... दिल से शे'र दर शे'र दाद कबूल फरमाएं।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 21, 2015 at 8:06pm
बुलंद हौसले और हौसला अफज़ाई को तवज्जो देती हुई ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए तहे दिल बहुत बहुत मुबारकबाद जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' साहब ।
Comment by Shyam Narain Verma on December 21, 2015 at 2:50pm
 इस सुंदर ग़ज़लक़े लिए हार्दिक बधाई

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

न पावन हुए जब मनों के लिए -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

१२२/१२२/१२२/१२****सदा बँट के जग में जमातों में हम रहे खून  लिखते  किताबों में हम।१। * हमें मौत …See More
yesterday
ajay sharma shared a profile on Facebook
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"शुक्रिया आदरणीय।"
Monday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, पोस्ट पर आने एवं अपने विचारों से मार्ग दर्शन के लिए हार्दिक आभार।"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। पति-पत्नी संबंधों में यकायक तनाव आने और कोर्ट-कचहरी तक जाकर‌ वापस सकारात्मक…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब। सोशल मीडियाई मित्रता के चलन के एक पहलू को उजागर करती सांकेतिक तंजदार रचना हेतु हार्दिक बधाई…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार।‌ रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर रचना के संदेश पर समीक्षात्मक टिप्पणी और…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब।‌ रचना पटल पर समय देकर रचना के मर्म पर समीक्षात्मक टिप्पणी और प्रोत्साहन हेतु हार्दिक…"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, आपकी लघु कथा हम भारतीयों की विदेश में रहने वालों के प्रति जो…"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय मनन कुमार जी, आपने इतनी संक्षेप में बात को प्रसतुत कर सारी कहानी बता दी। इसे कहते हे बात…"
Sunday
AMAN SINHA and रौशन जसवाल विक्षिप्‍त are now friends
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय मिथलेश वामनकर जी, प्रेत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service