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क्या नहीं ये अजीब हसरत है ?
ग़म किसी का किसी की राहत है
ख़ाक में हम मिलाना चाहें जिसे
उनको ही सारी बादशाहत है
रोटी कपड़ा मकान में फँसकर
बुजदिली, हो चुकी शराफत है
हर्फ करते हैं प्यार की बातें
आँखें कहतीं हैं, तुमसे नफरत है
मुज़रिमों को मिले कई इनआम
आज मजलूम की ये क़िस्मत है
बेरहम क़ातिलों को मौत मिली
सेक्युलर कह रहे , शहादत है
हाँ, ख़ुदा भी कहीं पे है लेकिन
देश हित ही सही इबादत है
आइना हो के भी तू है पत्थर
अब अयाँ तो तेरी भी सूरत है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
वाह बहुत खूब है सर वाह ...............
वाह बहुत उम्दा ॥
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
हर्फ करते हैं प्यार की बातें
आँखें कहतीं हैं, तुमसे नफरत है-------------वाह अनुज ,बहुत खूब .
आदरणीय सतविंदर भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ।
आदरनीय जय प्रकाश भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरनीय तस्दीक भाई , गज़ल अप्र शिर्कत और सुखन नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आपका कहना ग़लत नही है , आँख कहने से रवानी अच्छी आ रही है , लेकिन आख दो होतीं है और दोनो एक साथ एक ही बात कहतीं है , इसलिये आँखें कहा है , खें की मात्रा गिराया जाना विधान के अनुसार सही है । सलाह के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।
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