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सुख की बात यही है केवल म्यानों में तलवारें हैं
बरना घर के ओने कोने दिखती बस तकरारें हैं /1
खुद ही जानो खुद ही समझो उस तट क्या है हाल सनम
इस तट आँखों देखी इतनी बस टूटी पतवारें हैं /2
रोज वमन विष का होता है नफरत का दरिया बहता
यार अम्न को लेकिन बिछती हर सरहद पर तारें हैं /3
रोज निर्भया हो जाती है रेपिष्टों का यार शिकार
गाँव नगर रजधानी तक यूँ कहने को सरकारें हैं /4
खूब हुई है यार मुनादी अच्छे दिन बाँटेंगे खुशियाँ
अपने हिस्से में तो अब भी रोती हुई उधारें हैं /5
सारे भाई मिलकर पहले जिस आँगन में रहते थे
देख रहा हूँ आज ‘मुसाफिर’ उस आँगन दीवारें हैं /6
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आदरणीय लक्ष्मण भाई , बहुत अच्छी गज़ल कही है , आपको दिल से बधाइयाँ गज़ल के लिये ।
बस - पाँचवे शेर मे प्रयुक्त -- उधारें काफिया से सहमत नही हो पा रहा हूँ , उधारी का बहुवचन उधारियाँ सही है , अगर शेर इसी अर्थ मे है तो ? सोच लीजियेगा ।
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर |
आ० भाई मिथिलेश जी , आपकी प्रतिक्रिया पा मन आस्वस्थ हुआ . कमियों से अवगत करते रहिये . उपस्थिति के लिए हार्दिक धन्यवाद l
आ० भाई समर कबीर जी , आप जैसे विद्वजनो से सराहना पा ग़ज़ल का मान बढ़ा है हार्दिक धन्यवाद .
आ० भाई तेजवीर जी , आपका स्नेह पाकर धन्य हुआ . हार्दिक आभार l
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
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