ग़ज़ल (पत्थर निकला ) -------------------------
- 2122 ---1122 ---1122 --22
मेरि बर्बाद मुहब्बत का ये मंज़र निकला /
जिसको उल्फत का ख़ुदा समझा वो पत्थर निकला /
दिल को तस्कीन तो हासिल हुई हमदर्दी से
पर निगाहों से नहीं ग़म का समुन्दर निकला /
ज़ुल्म ने जब भी ज़माने में उठाया है सर
लेके ख़ुद्दार क़लम अपना सुख़नवर निकला /
नीम शब मिलने की तदबीर भी बेकार गयी
सुबह होते ही गली कूचे में महशर निकला /
यूँ ही दीवार खड़ी तो न हुई है शक की
जो था क़ासिद वो किसी और का मुखबर निकला /
लग रहा है ये ख़ुशी रूठ गयी है मुझ से
वक़्ते दीदार रुखे यार भी मुज़्तर निकला /
खुल गया वक़्ते नज़अ राज़े मुहब्बत आख़िर
लब से तस्दीक़ मेरे जैसे ही दिलबर निकला /
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
बहुत खूब
मोहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब , जनाब सलीम शेख़ साहिब और जनाब जयनित कुमार साहिब , ग़ज़ल पसंद करने और हौसला अफ़ज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया / ....... अर्ज़ यह है कि महशर का मतलब क़ियामत ,आफत ,शोरो शर वग़ैरा भी होता है / निकलना का मतलब उठना भी होता है / महशर निकला का मतलब शेर 4 के सानी मिसरे में क़ियामत उठना /शोरो शर होना लिया गया है / सलीम साहिब दुरुस्त लफ़्ज़ मुखबर (अरबी ) ही है मुखबिर नहीं। ...... महरबानी
अच्छी ग़ज़ल है तस्दीक़ साहब , दाद कुबूल करें , महशर दरअसल अरबी का लफ्ज़ है, इस्म-ए-मकां है ,महशर= हश्र होने की जगह जैसे मक़तल ( क़त्ल होने की जगह ) या मस्जिद ( सज्दा करने की जगह ) , 'महशर निकला' शायद सही नहीं होगा , साथ ही 'मुखबर' की जगह 'मुखबिर' सही लफ्ज़ होगा
आदरणीय तसदीक अहमद जी और आदरणीय समर साहब आप दोनो को बहुत बहुत शुक्रिया लफ्ज का विस्तृत मानी समझाने के लिये । जानकारी में इजाफा हुआ । ओ बी ओ में अपनी मौजूदगी को आप मार्गदर्शन देकर और हम कुछ ग्रहण करके सार्थक कर रहे है । सादर ।
gud gud
आदरणीय तस्दीक अहमद जी, बेहतरीन रचना है हार्दिक बधाई आपको ! सादर
जनाब रवि शुक्ल साहिब ,ग़ज़ल पसंद करने का बहुत बहुत शुक्रिया ,मेहरबानी। ..... वक़्ते नज़अ का मतलब है दम निकलने से पहले /..... निगाह का मतलब आँख भी होता है। इस शेर को किसी एक पर टारगेट नहीं किया है बल्कि जनरल कहा है / आपने जैसा लिखा वो भी हो सकता है / सादर
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