पकी फसल पर असमय बरसात और ओलों के कहर ने किसानों के पेट और कमर पर जो लात मारी थी। उसी का सर्वे चल रहा था। कौन किस हद तक घायल है उसी हिसाब से मुआवजा मिलना था। सो,दो सरकारी मुलाजिम एक पुरवा से दूसरे पुरवा जा जाकर कागज़ रंग रहे थे।
"भाग यहाँ से साsssले, यहाँ आया तो तेरी खैर नहीं। हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की? तेरा मन नहीं भरा मेरे बाल बच्चे खा कर? और कितनों को खायेगा?आ..ले,खाले...सब को खाजा..आजा,आ के दिखा तुझे अभी मजा चखाता हूं"कह कर वो अंधाधुंध पत्थर मारने लगा। उसकी विक्षिप्त सी हालत देख दोनों सर्वेकर्ता दहशत में आ गये,उसमें से एक ने साथ खड़े ग्रामीण से पूछा-
"अरे भैया! इसे क्या हुआ? पागल है क्या? "
"अरे अब क्या बतायें हजूर! अच्छा खासा मेहनती किसान था।पिछले साल इन्हीं दिनों ओलों ने इसका सब कुछ बरबाद कर दिया।लागत भी नहीं निकाल पाया बेचारा!, ऊपर से साहूकार के तकाज़े। सो खा लिया परिवार सहित जहर, कोई नहीं बचा! बस इसी की नहीं आई थी..सो बच गया, लेकिन बच्चों की लाशें देखकर दिमाग ठिकाने नहीं रहा।"
"ओहो. .बहुत बुरा हुआ, लेकिन ये पत्थर किसे मार रहा है? "
"उन्हें" असमय घिर रहे काले बादलों की ओर इशारा करते हुये वो ग्रामीण बोला।"
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
क्या बात है, बहुत ही अच्छी लघुकथा कही है आदरणीया राहिला जी, विक्षिप्त की मानसिकता का चित्रण और उस पर गजब की पंचलाइन| सादर बधाई स्वीकार करें|
प्रकृति पर निर्भर रहने वाले किसान को प्रकृति ही मरने को मजबूर कर देती है किसानों के हालात पर बहुत अच्छी लघु कथा लिखी राहिला जी हार्दिक बधाई
सुन्दर प्रस्तुति
हार्दिक बधाई आदरणीय राहिला जी!बेहतरीन प्रस्तुति!
बढ़िया ,राहिला जी । प्रकृतिक मार से सभी पगलाए है , प्रतीक के माध्यम से अच्छी प्रस्तुति ,बधाई।
समाया दर्द किस किस का
बयां में आपके बोलो .................हार्दिक बधाई
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