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जला भी नहीं तो बुझा भी नहीं है ( फिल्बदीह ग़ज़ल 'राज ')

१२२  १२२  १२२  १२२ 

नया दर्द कोई जगा भी  नहीं है 
पुराना अभी तक गया भी नहीं

न करना अभी बंद अपनी ये पलकें 
समंदर अभी तक भरा भी नहीं है

मुसलसल धड़कता कहीं जिस्म में दिल 
किधर है कहाँ है पता भी नहीं है

 

इन आँखों का पानी है नमकीन कितना 
समंदर ने अबतक चखा भी नहीं है

बहा ले गई मौज साहिल से बेशक़ 
तेरा नाम दिल से मिटा भी नहीं है

 

सुना है लिखा उसने मुझको कोई खत 
मगर उसपे मेरा पता भी नहीं है

 

मुहब्बत का उसकी अजब ये शरारा 
जला भी नहीं तो बुझा भी नहीं है

 

किया इश्क़ जिससे वो पत्थर है शायद 
उसे फ़िक्र मेरी  जरा भी नहीं है

 

बहकती हवा को पकड़ना है मुश्किल 
पकड़ने की फिर अब रजा भी नहीं है

उसे पढना चाहूँ मैं अहमक हूँ कितनी 
जबीं पे मेरी जो लिखा भी नहीं है

कहाँ अपने ख़्वाबों की दुनिया बसाये 
नदी को किनारा मिला भी नहीं है

---------

 

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Comment by rajesh kumari on June 27, 2016 at 9:32pm

आ० महेंद्र कुमार जी ,जर्रानवाजी का दिल से शुक्रिया |

Comment by Sushil Sarna on June 27, 2016 at 8:16pm

किया इश्क़ जिससे वो पत्थर है शायद
उसे फ़िक्र मेरी जरा भी नहीं है

वाह आदरणीया राजेश कुमारी जी वाह कितने खूबसूरत अहसास हैं .... इस दिलकश ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

Comment by pratibha pande on June 27, 2016 at 6:56pm

मुसलसल धड़कता कहीं जिस्म में दिल 
किधर है कहाँ है पता भी नहीं है.... वाह ,,यहाँ बाहर तेज़ मूसलाधार बारिश है और अन्दर लय में आपकी ग़ज़ल को पढना  एक अलग ही आनंद दे रहा है है .बधाई लीजिये आदरणीया  

 

Comment by Harash Mahajan on June 27, 2016 at 2:08pm

आ० rajesh kumari जी यूँ तो सारी ग़ज़ल के शेर आला से आला पेश हुए हैं मगर ये दो शेर दिल की ज़मीं तक उतर गये...

"मुहब्बत का उसकी अजब ये शरारा 
जला भी नहीं तो बुझा भी नहीं है"

"न करना अभी बंद अपनी ये पलकें 
समंदर अभी तक भरा भी नहीं है"

यकीनन आपके फन से यहाँ बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है | मेरी जानिब से आपके इस इन्तखाब ढेरों दाद....!! वसूल पाइयेगा !!

सादर !!

Comment by Rahila on June 27, 2016 at 1:07pm
"मुहब्बत का उसकी अजब ये शरारा
जला भी नहीं तो बुझा भी नहीं है"माशाअल्लाह, क्या खूब कहा।पूरी ग़ज़ल ही शानदार बन पड़ी।खूब बधाई।सादर
Comment by Shyam Narain Verma on June 27, 2016 at 11:09am
इस खूबसूरत रचना के लिये दिली दाद कुबूल करें  सादर
Comment by Mahendra Kumar on June 27, 2016 at 11:05am
वाह! वाह! वाह! क्या बात है!! दिल ख़ुश हो गया! इस ग़ज़ल पे मेरी तरफ से ढेर सारी बधाइयाँ!!

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