" अरे साहब , क्या हो गया है तुमको , ऐसे जमीन पर ..... ! "
" कौन विमला ? इतने दिन कैसे छुट्टी कर ली तुमने .....आह ! मुझ बुढ़े का तो ख्याल करती "
" उठो ,चलो बिस्तर पर , ज्यादा बोलने का नही रे ! .... मेरा घर-संसार है । यहाँ काम करने से ज्यादा जरूरी है वो । "
" हाँ ,सही कहा , तुम्हारा अपना घर !"
" साहब ,एक बात कहूँ , अब तुम अकेले नहीं रह सकते हो , तुम्हारी बेटी को बुला लो "
" क्या कहा तुमने ,बेटी को बुला लूँ ? "
" हाँ , यही बोला मै तेरे को , तू आज है कल नहीं है । ऐसे में किसी को पास होना माँगता ना ! देखो तो ,कैसे जमीन पर लुढ़का हुआ था "
" इकलौती बेटी मेरी ,जिसको पढ़ा - लिखा ,अफसर बना कर बुढ़ापे का सहारा बनाना चाहा , वो भी तो अब तुम्हारे जैसा ही कहती है विमला "
" मेरे जैसा कहती है , क्या कहती है वो ? "
" कहती है , वो अपने घर को छोड़ कर मुझे नहीं देख सकती है । उसकी पहली प्राथमिकता उसका अपना परिवार है "
" क्या रे साहिब , माँ - बाप ,जिसने जन्म दिया वो बेटी का परिवार नहीं ? "
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
तुम्हारी बेटी की जगह अपनी बेटी को बुला लो बेहतर होता बाकि कहानी मुझे अच्छी लगी आजके दौर को प्रभाषित करती
बहुत अच्छी लघु कथा हुई आ० कांता जी बहुत मर्म स्पर्शी हार्दिक बधाई आपको |
आदरणीय कांता रॉय जी,
/कौन विमला ? / यहां पर 'कौन' और 'विमला?' के बीच में Pause होना चाहिए था । वैसे तो आपने इस लघुकथा में डॉटस का प्रयोग बहुत खुलदिली से किया है परन्तु /कौन.... विमला?/ यहां डॉटस आवश्यक थे तो यहां आप चूक गई ।
/.... मेरा घर-संसार है । यहाँ काम करने से ज्यादा जरूरी है वो । "/ घरों में काम करने वाली बाई का यह संवाद गले से नीचे नहीं उतर रहा आदरणीय । बेशर उसका घर-संसार है पर दूसरों के घर काम काज करने से ही उसकी जीविक चलती है।
/" हाँ , यही बोला मै तेरे को " / जिस क्षेत्र विशेष की भाषा का उच्चारण विमला कर रही है वहां वहां शब्द 'को' नहीं 'कू' होना चाहिए। कुछेक और शब्द भी हैं जिनका उच्चारण विमला से दूसरी तरह करवाना उचित होता।
/" क्या रे साहिब , माँ - बाप ,जिसने जन्म दिया वो बेटी का परिवार नहीं ? "/ रूढ़वादी परंपरा पर एक जर्बदस्त चोट करती इस कथा हेतु बधाई स्वीकार करें । सादर
" कहती है , वो अपने घर को छोड़ कर मुझे नहीं देख सकती है । उसकी पहली प्राथमिकता उसका अपना परिवार है "
" क्या रे साहिब , माँ - बाप ,जिसने जन्म दिया वो बेटी का परिवार नहीं ? "
बहुत मार्मिक, हृदयस्पर्शी और यथार्थ के धरातल को छूती इस लघुकथा की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया कांता रॉय जी। बेटी का जीवन दो पलड़ों में बटा होता है , अपने परिवार के उत्तरदायित्वों का निर्वाहन भी करना होता है और अपने जन्मदाता के प्रति अपने कर्तव्यों को भी निभाना होता है। बहरहाल इस प्रस्तुति के लिए आपको दिल से बधाई।
बस हमारे समाज का ये ही विरोधाभास सालता है , बेटे बेटी को जहाँ माँ बाप बराबरी से पालते हैं संपत्ति में बराबरी का हिस्सा है तो माँ बाप के प्रति जिम्मेदारी बराबर क्यों नहीं , क्यों नहीं बेटियाँ ये महसूस करती हैं और इसके लिए खड़ी होती हैं , हमारे समाज में व्याप्त इस विरोधाभास को आपने सशक्त शब्द दिए हैं हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको कांता जी
ह्रदय स्पर्शी ..मार्मिक ..मेरी जानिब से बहुत बहुत बधाई !! आ० कांता रॉय जी !!
सादर !!
बेटी जब अपने संसार में रम जाती है तो फिर माता पिता से मिलने बहुत कम ही आती है फिर वो अकेली माता या पिता का दर्द कहा देख पाती है | बहुत ही सुन्दर प्रस्तुती आदरणीया , हार्दिक बधाई | सादर
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