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पगडंडियों के भाग्य में कोई नगर कहाँ ?
मैदान गाँव खेत सफ़र किन्तु घर कहाँ ?
होठों पे राह और सदा मंज़िलों की बात
पर इन लरजते पाँव से होगा सफ़र कहाँ ?
हम रोज़ मर रहे हैं यहाँ, आ कभी तो देख..
किस कोठरी में दफ़्न हैं शम्सो-क़मर कहाँ ?
सबके लिए दरख़्त ये साया लिये खड़ा
कब सोचता है धूप से मुहलत मगर कहाँ !
जो कृष्ण अब नही तो कहाँ द्रौपदी कहीं ?
सो, मित्रता की ताब में कोई असर कहाँ ?
क़ातिल तरेर आँख.. जताता है दोस्ती..
ऐसे में कौन कण्ठ ही होगा मुखर कहाँ ?
अहसास ही सवाल थे अहसास ही ज़वाब
’रक्खी है आज लज्जत-ए-दर्द-ए-जिगर कहाँ !’
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय सौरभ जी, दाद कुबूल कीजिए
पगडंडियों के भाग्य में कोई नगर कहाँ ?
मैदान गाँव खेत सफ़र किन्तु घर कहाँ ?
होठों पे राह और सदा मंज़िलों की बात
पर इन लरजते पाँव से होगा सफ़र कहाँ ?
शानदार आदरणीय सौरभ सर शानदार .... खूबसूरत अहसासों से लबरेज़ ऐसे अशआर ग़ज़ल को एक नयी बुलंदी बख्शते हैं ... लगता है जैसे कोई बादे नसीम ज़िस्म को एक सिहरन दे गयी हो ... बहरहाल अहसासों को जुबां देती इस बेहतरीन ग़ज़ल की प्रस्तुति पर आपको हार्दिक हार्दिक बधाई।
हार्दिक बधाइ स्वीकार करें इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए । सादर । |
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