तेरी ईंटें, न पत्थर हो के लौटें
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ये रिश्ते भी न बदतर होके लौटें
तेरी ईंटें, न पत्थर हो के लौटें
ये चट्टानें , न ऐसा हो कि इक दिन
मैं टकराऊँ तो कंकर हो के लौटें
इसी उम्मीद में कूदा भँवर में
मेरे ये डर शनावर हो के लौंटें
बनायें ख़िड़कियाँ दीवार में जब
दुआ करना, कि वो दर हों के लौटें
दिवारो दर, ज़रा सी छत औ ख़िड़की
मै छोड़ आया कि वो घर हो के लौटें
कुछ इक सूखी निगाहें ऐ ख़ुदा, मैं
रखूँ उम्मीद क्या , तर हो के लौटें ?
नहीं कुछ भी यक़ीं , पर भेजता हूँ
मेरे ये मसअले सर हो के लौटें
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
बहुत खूब आदरण्य गिरिराज भाईजी. अच्छी ग़ज़ल के लिए दाद कुबूल कीजिये
शुभ-शुभ
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय गिरिराज जी, दाद कुबूल कीजिए
उम्दा ग़ज़ल हुई है आदरणीय | हार्दिक बधाई
आदरणीय गिरिराज जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई है, मुश्किल को ज़मीन को क्या खूब निभाया है आपने, बहुत बहुत बधाई आपको
उम्दा ग़ज़ल हुई है आदरणीय | हार्दिक बधाई
आदरणीय विनय भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
//मै छोड़ आया कि वो घर हो के लौटें//, वाह वाह, बेहतरीन| बहुत बहुत बधाई इस शानदार ग़ज़ल के लिए
आदरणीय सतविन्द्र भाए , हौसका अफज़ाई का शुक्रिया आपका ।
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