2122 2122 212
कनखियों से एक वादा फिर हुआ
हाँ, मुहब्बत का तकाजा फिर हुआ
हम तो समझे थे बहारें आ गयीं
मौत का सामान ताजा फिर हुआ
उल्फतें बढ़ती रहीं यह देखकर
इश्क का दुश्मन ज़माना फिर हुआ
रास बर्बादी मेरी आयी उन्हें
बाद मुद्दत मुस्कराना फिर हुआ
लौट आयेंगे सुना था एक दिन
किन्तु जीते जी न आना फिर हुआ
रूह रुखसत हो वहां उनसे मिली
और मंजर आशिकाना फिर हुआ
आ गया मैं छोड़ जन्नत के मजे
लखनऊ मेरा ठिकाना फिर हुआ
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ० मनन कुमार जी , बहुत बहुत आभार
आ० विजय सर , आपका आशीर्वाद मिला आभारी हूँ सादर
आ० सुरेन्द्र नाथ सिंह -हार्दिक आभार
इस शानदार ग़ज़ल के लिए दाद कुबूल कीजिए आदरणीय गोपाल नारायण जी
बहुत उम्दा ग़ज़ल है आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण जी। मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई!
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