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गज़ल - कनखियों से एक वादा फिर हुआ

2122  2122  212

कनखियों से एक वादा फिर हुआ

हाँ, मुहब्बत का तकाजा फिर हुआ

 

हम तो समझे थे बहारें आ गयीं  

मौत का सामान ताजा फिर हुआ

 

उल्फतें बढ़ती रहीं यह देखकर  

इश्क का दुश्मन ज़माना फिर हुआ

 

रास बर्बादी मेरी आयी उन्हें

बाद मुद्दत मुस्कराना फिर हुआ

 

लौट आयेंगे सुना था एक दिन

किन्तु जीते जी न आना फिर हुआ

 

रूह रुखसत हो वहां उनसे मिली

और मंजर आशिकाना फिर हुआ 

 

आ गया मैं छोड़ जन्नत के मजे

लखनऊ मेरा ठिकाना फिर हुआ

 

मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 10, 2016 at 2:09pm

आ० मनन कुमार जी , बहुत बहुत आभार

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 10, 2016 at 2:09pm

आ० विजय सर , आपका आशीर्वाद मिला  आभारी  हूँ   सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 10, 2016 at 2:07pm

आ० सुरेन्द्र नाथ सिंह -हार्दिक आभार

Comment by रामबली गुप्ता on October 9, 2016 at 8:46pm
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई है आद0 गोपाल नारायन जी। दिल से बधाई आपको।सादर
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 9, 2016 at 8:05pm
आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी बहुत खूब । खूबसूरत गजल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें । सादर ।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 9, 2016 at 6:20pm

इस शानदार ग़ज़ल के लिए दाद कुबूल कीजिए आदरणीय गोपाल नारायण जी

Comment by Samar kabeer on October 9, 2016 at 3:55pm
जनाब डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on October 9, 2016 at 10:49am
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल की हार्दिक बधाई।
Comment by Mahendra Kumar on October 9, 2016 at 7:11am

बहुत उम्दा ग़ज़ल है आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण जी। मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई!

Comment by Manan Kumar singh on October 9, 2016 at 5:02am
अच्छी गजल के लिए बधाई आपको आदरणीय!

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