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कट गये सर वो मगर शमशीर को समझे नहीं
घर जला, पर आग की तासीर को समझे नहीं
ख़्वाब ए आज़ादी कभी ताबीर तक पहुँचे भी क्यूँ
सबको समझे वो मगर जंजीर को समझे नहीं
वो मुसव्विर पर सभी तुहमत लगाने लग गये
जो उभरते मुल्क़ की तस्वीर को समझे नहीं
मजहबों में बाँट, वो नफरत दिलों में बो गये
और हम भी उनकी इस तदबीर को समझे नहीं
उनका दावा है, वो चार: दर्द का करते रहे
हमको शिकवा है हमारी पीर को समझे नहीं
उनसे आँचल खींचने का कोई शिकवा क्या करे
कृष्ण की उँगली बंधी जो चीर को समझे नहीं
जब भी पहुँचे उस तरफ तो फूल से वो हो गये
क्यूँ चलाते हो उसे, जिस तीर को समझे नहीं
कौन जाना है ख़ुदा को ? सारे दावे हैं गलत
है हक़ीक़त, हम अभी दिलगीर को समझे नहीं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
कट गये सर वो मगर शमशीर को समझे नहीं
घर जला, पर आग की तासीर को समझे नहीं
वाह वाह वाह .... गज़ब ढा रहे हैं आपके शे'र ... इस दिलकश ग़ज़ल के लिए दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं से।
आदरणीय गिरिराज भाई जी बहुत बहुत बढि़या गजल कही आपने हर शेर दमदार दिली मुबारक बाद कुबूल करें चारा और चारह् की चर्चा में जानकारी में इजाफा पाठको का अवश्य हुआ होगा । इसके लिये आप और आदरणीय समर साहब माध्यम बने बहुत बहुत बधाई और आभार आप दोनो का ।
वाह ..खूब ग़ज़ल हुई है ..बधाई ..
अंतिम शेर में कौन जाना है को किस ने जाना है ख़ुदा को ..करने से शायद और बेहतर हो ..
बहुत बधाई
बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आद० गिरिराज जी शेर दर शेर दाद कुबूलें |
आदरणीय तेज वीर भाई , उत्साहवर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरनीय समर भाई , गज़ल की सराहना कर उत्साहवर्धन करने के लिये आपका हृदय से आभार ।
आपकी इस्लाह स्वीकार करता हूँ , और शे र वैसा ही कर रहा हूँ
चारा ( चारः ) मुझे मालूम था और है ... आ. मद्दाह की लुगाद में -- चार: लिखा है ... लेकिन इसी मंच मे पहले मै चारा लिख चुका हूँ ...इस लिये लिख दिया था ... मुझे चारः लिख्ने मे कोई आपत्ति नही है ।
बेबह्र शेर मे ... हो .. शब्द छूत गया है .. जोड़ दूँगा .... आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय आरिफ भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।
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