२१२२,१२१२,२२ (११२)
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दिल ने थोड़ा मलाल रक्खा है
तेरी यादों को पाल रक्खा है.
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रोज़ मरता हूँ..और मरता हूँ
फिर भी ख़ुद को सँभाल रक्खा है.
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यूँ तो अंजाम जानता हूँ मगर
एक सिक्का उछाल रक्खा है.
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मैं तेरी शोख़ियाँ पकड़ लूँगा
मैंने आँखों में जाल रक्खा है.
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तेरे मिलने तलक जुदाई का
फ़ैसला मैंने टाल रक्खा है.
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ख़ूब पीता हूँ..छक के पीता हूँ
ख़ुद का कितना ख़याल रक्खा है.
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और सारा कुसूर अँधेरे का
रात ने दिन पे डाल रक्खा है.
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देख नश्तर तुम्हारे हाथों में
“नूर” ने दिल निकाल रक्खा है.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आदरणीय समर सर... वो मुहावरा ही ऐसा है ..छक के खाया..छक के पीया.. अत: इसे ऐसे ही स्वीकार कर लिया मैंने.
सादर
बहुत उम्दा
बेहतरीन ग़ज़ल हुई है आदरणीय निलेश जी | हार्दिक बधाई आपको |
आदरणीय निलेश जी,
बेहतरीन ग़ज़ल हुई है.दाद के साथ मुबारकबाद.
सादर
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