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आज अपना सारा ईगो ही जला देता हूँ मैं
बर्फ़ रिश्तों पर जमी उसको हटा देता हूँ मैं
मेरे होने की घुटन तुमको न हो महसूस अब
ज़िन्दगी खोने का खुद को हौसला देता हूँ मैं
नाम दूँ बदनामियाँ दूँ, मेरे वश में है नहीं
सो मेरे होठों को चुप रहना सिखा देता हूँ मैं
तेरे चहरे पर शिकन संकोच अब आए नहीं
इसलिए सौगात में अब फ़ासला देता हूँ मैं
कुछ नहीं बस हार इक ला कर चढ़ा देना प्रिये
घाट पर सोया मिलूँगा ये बता देता हूँ मैं
मौलिक अप्रकाशित
Comment
'सो मेरे होटों को चुप रहना सिखा देता हूँ मैं'
इस मिसरे को यूँ होना चाहिए :-
'सो,लबों को अपने चुप रहना सिखा देता हूँ मैं'
आदरणीय सौरभ सर सादर प्रणाम। बहुत दिनों बाद आपका आशीर्वाद मेरी किसी रचना को प्राप्त हुआ, अच्छा लग रहा। सुझाव के अनुरूप सुधार के लिए अभी प्रयास करता हूँ, ज्यों ही सफल होऊंगा, पुनः संशोधित रूप प्रस्तुत करूँगा.....
आदरणीय लक्ष्मण सर सादर आभार
भाई पंकज जी, आपकी ग़ज़ल प्रस्तुत हुई है और आशानुरूप चर्चा भी हो रही है.
आज अपने सारे ख़्वाबों को जला देता हूँ मैं
बर्फ़ रिश्तों पर जमी उसको मिटा देता हूँ मैं
मेरी दृष्टि से देखें तो मैं मतले के दोनों मिसरों में कोई संबन्ध ही नहीं देख पा रहा. अपने सारे ख़्वाबों को जला देने का काम कोई क्षुब्ध, निराश, टूटा हुआ आदमी ही कर सकता है. फिर अचानक वह रिश्तों पर जमी बर्फ़ को हटाने जैसा कोई सकारात्मक कार्य करने के लिए कैसे उद्यत हो उठता है ? जमी हुई बर्फ़ को हटाना वस्तुतः breaking the ice जैसे मुहावरे का अनुवाद है. इस विन्दु के परिप्रेक्ष्य में आप मतलेको पुनः देखें. यदि मैं गलत हूँ तो मेरा मार्ग-दर्शन करें.
मेरे होने से घुटन तुमको न हो महसूस अब
ज़िन्दगी खोने का खुद को हौसला देता हूँ मैं
मेरे होने की घुटन तुमको न हो महसूस अब .. इन संदर्भों में यह सही पंक्ति होगी
नाम दूँ बदनामियाँ दूँ, मेरे वश में है नहीं
प्रीत तुझको बद्दुआएँ कब भला देता हूँ मैं
सानी मिसरे की तार्किकता के सापेक्ष उला मिसरे को और साधना उचित होगा.
तेरे चहरे पर शिकन संकोचमय आए नहीं
सो तुझे सौगात में अब फ़ासला देता हूँ मैं
’संकोचमय’ का सही प्रयोग नहीं हो सका है. सीधा ’संकोच में’ कर लेने में क्या समस्या है ?
कुछ नहीं बस फूल इक लाना गुलाबी साथ में
घाट पर सोया मिलूँगा ये बता देता हूँ मैं
घाट पर सोये हुए व्यक्ति के लिए किसी का गुलाबी फूल लेकर क्या या क्यों जाना ?
खींच कर तो अर्थ निकल आ ही रहा है. किंतु, भाई, भावनात्मक प्रसंग बाहर रखें, पंक्तियाँ को तो और स्पष्ट होना था न ?
बहरहाल, आपके इस सकारात्मक प्रयास पर हार्दिक शुभकामनाएँ.. आप सतत प्रयास करते रहें. आपकी कोशिशें क़ामयाब हो रही हैं.
शुभेच्छाएँ
आ. भाई पंकज जी, बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
आदरणीय बृजेश जी बहुत बहुत आभा
क्या कहने आदरणीय बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही...सादर
दरणीय अजय जी सादर आभार, मिटा जगह हटा ही होना था
आदरणीय पंकज जी,
आदरणीय समर साहब के निर्देश के अनुसार मतले के सानी को ' बर्फ़ जो रिश्तों पे है उसको हटा देता हूँ मैं' किया जा सकता है.
'सो तुझे सौगात में अब फ़ासला देता हूँ मैं' ये है ग़ज़ल में बात कहने का अंदाज़ ! वाह !
बहुत खूबसूरत अशआर हुए हैं. हार्दिक बधाई.
सादर
आदरणीय बाबूजी फिर से संशोधित करता हूं
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