काल कोठरी
निस्तब्धता
अँधेरे का फैलाव
दिशा से दिशा तक काला आकाश
रात भी है मानो ठोस अँधेरे की
एक बहुत बड़ी कोठरी
सोचता हूँ तुम भी कहीं
बंधी-बंधी-सी खोई-खोई
अन्यमनस्क, अवसन्न
इस गहन अँधेरे में भी
परखती होगी तिरछी लकीरों को
इस रात की कोठरी में अकेली रुआँसी
दर्द की दानवी जड़ों से जुड़ती-टूटती
गरमीली यादों की भीगी वाष्प को ठेलती
बेबस, उदास, उसी ज़हरीली भाफ से
बेचैन आँखों को आँज रही होगी
आँजते-आँजते
कोई तीखी एक सलाई दर्द की
चुभ जाती होगी
तिर आते होंगे गरमीले आँसू ...
सिसकारी भरती बींधती उदासी
नहीं बदलता दृश्य, नहीं बदलता
रात-देर-तक अपलक गहरे भीतर
अतिशय चिन्ता
नामंज़ूर है फिर भी मन को कोई शर्त
ना ही मंज़ूर है उसे तजुर्बों से समझोता
अकस्मात अनपेक्षित खयालों की कंपकपी
कभी इस कभी उस मजबूरी का तनाव तुममें
मुझमें भी रहा है कब से व्याप
हरदम किसी बेबस कमज़ोरी का संताप
अनुच्चरित विशाद
अजगरी रात, पराजित आस
पास सरकता धुंधलका
काल-कोठरी में हैं फ़ासलों में खोए
दो भीगे हुए मन एकाकार
आर-पार हिमाच्छादित नि:शब्दता
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
उत्तम सृजन के लिए बधाई आदरणीय विनय निकोर जी .....
आपका हार्दिक आभार, आ० लक्ष्मण जी।
आ. भाई विजय जी, बेहतरीन रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
आपका हार्दिक आभार, आ० कल्पना बहन।
गंभीर भावपूर्ण रचना | हार्दिक बधाई आदरणीय | कुछ ज्यादा ही उदासीन हो गयी है कविता | सादर |
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय नरेन्द्रसिंह जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुरेन्द्र जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई तस्दीक अहमद खान साहिब।
आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन।बहुत बेहतरीन भाव सम्प्रेषण के साथ बढिया अतुकांत। बहुत बहुत बधाई
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