दबे पाप ऊपर जो आने लगे हैं
सियासत में सब तिलमिलाने लगे हैं।१।
घोटाले वो सबके गिनाने लगे हैं
मगर दोष अपना छिपाने लगे हैं।२।
वतन डूबता है तो अब डूब जाये
सभी खाल अपनी बचाने लगे हैं।३।
रहे कोयले की दलाली में खुद जो
गजब वो भी उँगलीउठाने लगे हैं।४।
दिया था भरोसा कि लुटने न देंगे
वही बेबसी अब जताने लगे हैं।५।
दसक भर जो पाले हुए थे लुटेरे
कुटिलता से वो मुस्कुाने लगे हैं।
पुरानी हुई चौथे खम्भे की रीतें
वहाँ भी तो यारी निभााने लगे हैं।७।
कभी सीना छप्पन जो हुंकारते थे
वही आज आँसू बहाने लगे हैं।८।
मौलिक-अप्रकाशित
Comment
वाह आदरणीय क्या शानदार ग़ज़ल कही है..सादर
समसामयिकता के साथ बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है, आदरणीय लक्ष्मण जी।
सादर।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर'जी आदाब,ग्गज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
दूसरे शैर का ऊला सानी से मेल(रब्त)पैदा नहीं कर ज़का,अगर ऊला मिसरा यूँ कर लें तो उचित होगा:-
'घोटाले वो सबके गिनाने लगे हैं'
4थे शैर में शिल्प कमज़ोर है, और दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,देखियेग ।
6ठे शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है ।
7वें शैर के सानी मिसरे में सही शब्द है "बह्स"21,और 'बह्स'दिखाई नहीं जाती,की जाती है,देखियेग ।
आ. रक्षिता जी, गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय लक्ष्मण जी, नमस्कार।
बहुत ही सुन्दर रचना, हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
आ. भाई श्याम नारायन जी, आपको गजल अच्छी लगी , लेखन सफल हुआ । मार्गदर्शन करते रहिए । हार्दिक आभार ।
आ. भाई नादिर जी, गजल का अनुमोदन और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय लक्ष्मण जी उम्दा गजल के लिए मुबारकबाद ......
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