एक बहुत बड़े जमींदार थे। उनका कुनबा भी बहुत बड़ा था। उनकी जमीन से होकर एक सोता बहता था। सोते के दूसरी तरफ भी कुनबे के कुछ लोग रहते थे। जिनसे यदा कदा ही मिलना हो पाता था।
सरकार ने जब जमींदारी जब्त करनी शुरू की तो जमींदार साहब को अपने धन का अपने लोगों के लिए सदुपयोग करने का उपाय सूझा। उन्होंने सरकार के तय मापदंड के अलावा बचे धन से उस सोते पर एक पुल बनवा दिया। ताकि कुनबे के लोग आपस में मिलते जुलते रहें। जम्हूरियत में संख्या बल का अपना ही महत्व है ये बात वह खूब समझते थे।
पुल बनकर तैयार हुआ तब किसी बड़े आदमी से उद्घाटन करवाने की सोची ताकि इलाके में उनके बड़े कुनबे की धाक बढ़े।
निमंत्रण पत्र बाँटने के लिए नाम लिखते समय सुपुत्र ने अनायास ही पूछ लिया "उस पार वालों को भी निमंत्रण भेजना है क्या ?"
जमींदार साहब कुछ देर तो अवाक् से सुपुत्र का मुँह देखते रहे और फिर धीरे से बोले " नहीं , वह सब तो घर के ही लोग हैं ,उनको क्या निमंत्रण भेजना । अब बस तुम कचहरी जाकर कागज बनवा लो, उद्घाटन के बाद पुल सरकार को सौंप देंगे। आगे रख रखाव की जिम्मेदारी सरकार की होगी ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद0 कुमार गौरव जी सादर अभिवादन। बढिया लघुकथा कहने का प्रयास। बहुत बहुत बधाई इस प्रयास पर। सादर
देश में यही फार्मूला तो चल रहा है।
बढ़िया शीर्षक के साथ बढ़िया तीखी लघुकथा।
विवरणात्मक और संवाद, दोनों तरह की मिश्रित शैली में बढ़िया विचारोत्तेजक दिलचस्प रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब कुमार गौरव साहिब। क़िस्सागोई जैसे तत्व कम करने के लिए फ्लैशबैक का प्रयोग किया जा सकता है।
आपने क्या कहने की कोशिश की है??बात कुछ साफ नहीं हुई आदरणीय..या शायद मेरी समझ में नहीं आई।
KYA IS LGHUKTHA KO AUR LGHU KR SKNA SMBHV HAI.DEKHIEY AGR KUCH AUR KSAV LA SKTE HO TO
जनाब कुमार गौरव साहिब आदाब,अच्छी लघुजथा है,बधाई स्वीकार करें ।
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