जुदाई है महरुमी-ए-मरज़ क्या, जुदाई कहे क्या
हो ज़िन्दगी में खुशी का मौसम या मातम इन्तिहा
कर देती है दिल को बेहाल हर हाल में यह
रातें मेरी हैं बार-ए-गुनाह अब जुदाई में तेरी
किस्सा: है कुश्त-ए-ग़म, यह तसव्वुर है कैसा
कहीं आकर पास दबे पाँव न लौट जाओ तुम
नींद तो क्या यह रातें अंगड़ाई तक हैं लेती नहीं
अंजाम के दिन बुला कर आख़िर में पूछेगा जो
आलम अफ़्रोज़ खुदा उसूलन पास बुला कर मुझे
यूँ मायूस हो क्यूँ? मलाल है? आरिज़: है क्या?
तनाब-ए-उम्र में हम कब से तफ़ारूक ही सही
फिर भी माँग लूँगा खुदा से आलम-ए-बका में भी
उफ़: ...
उम्मीद में तेरी, तनहा जुदाई के चार और दिन
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
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महरूमी = निराशा, असफ़लता, दुर्भाग्य
मरज़ = बीमारी
आलम अफ़्रोज़ = संसार को प्रकाशित करने वाला
आरिज़ = रोग, व्याधि
मलाल = दुख, वैमनस्य, पश्चाताप
आलम-ए-बका = परलोक
असूलन = असूल से, नियमानुसार
तफ़ारुक = एक दूसरे से जुदा होना
तबाब-ए-उम्र = आयुकाल
इंतिहा = पराकाष्ठा, चरम सीमा
बार-ए-गुनाह = गुनाहों का बोझ
तसव्वुर = ध्यान, विचार
कुश्त-ए-ग़म = प्रेम अग्नि में भस्म किया हुआ
किस्स: = कथा, घटना
तन्हा = एकाकी, केवल, एकमात्र
Comment
भाई समर जी। आदाब। अवकाश पर होने के बावजूद मेरी रचना को समय देने के लिए आभारी हूँ। विस्तार में प्रतिक्रिया देने के लिए और मार्ग-दर्शन के लिए भी दिल से शुक्रिया। मुझको आपसे यही उमीद थी... कि आप निसंकोच मुझको गाईड करेंगे। बहुत, बहुत आभार। मेरे पास उर्दू की जो डिक्शनरी है उसमें मैंने अब जाना कि बहुधा शब्द अरबी - फ़ारसी के हैं। अच्छी उर्दू के लिए कृपया कोई dictionary बाताएँ।
हाँ, और रचना की सराहना के लिए आभार, भाई।
लगभग एक साल से मुझको e mail में notifications बहुत ही कम मिल रही हैं। कितनी बार यहाँ ओ बी ओ पर आता हूँ तो अचानक कोई प्रतिक्रिया द्ख जाते है... अभी भी ऐसा ही हुआ। सादर और सस्नेह। Dictionary के बारे में बताइएगा, प्लीज़।
जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब,ओबीओ से अवकाश पर होने के बावजूद आपके आदेशानुसार आपकी रचना पर हाज़िर हूँ ।
आपकी रचना भाव के हिसाब से बहुत ही उम्दा और दिल को छूने वाली है,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई पेश करता हूँ ।
कुछ बातें आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा,और वो ये कि आपने कविता में जिस भाषा का प्रयोग किया है वो आम पाठक की समझ में आने वाली नहीं,कोई भी रचना उसी वक्त लोकप्रिय होती है जो पाठक को जल्दी समझ में आती है,हालाँकि आपने रचना के साथ शब्दार्थ भी दिये हैं ।
आपकी रचना अगर उर्दू भाषा में होती तो आम पाठक उस तक आसानी से पहुंच जाता लेकिन इसमें अधिकतर शब्द फ़ारसी और अरबी भाषा के हैं, जिसे आप उर्दू भाषा समझ रहे हैं ।
उर्दू भाषा अस्ल में कोई भाषा ही नहीं है,इसे लश्करी ज़बान कहा गया है,और जिसे हिन्दुई या हिन्दी; ए-मुअल्ला भी कहते हैं,उर्दू हमारे देश में पैदा हुई,और इसे लश्करी ज़बान इसलिये भी कहा जाने लगा कि उर्दू का अर्थ होता है लश्कर, हमारे देश पर अलग अलग समय में कई लोगों का शासन रहा है, और इसी वजह से इसे लश्करी ज़बान का नाम दिया गया,जो सबकी समझ में आसानी से आ जाये,आज हम आम बोल चाल में जिस ज़बान को बोलते हैं वो न तो शुद्ध हिन्दी है, न संस्कृत है, न फ़ारसी,वो यही लश्करी ज़बान है, जिसे उर्दू कहा जाता है,आपसे अनुरोध है कि आप इसी भाषा का प्रयोग अपनी रचनाओं में करें तो ज़ियादा से ज़ियादा पाठक आपसे और आपकी रचनाओं से जुड़ सकेंगे,उम्मीद है आप मेरी बात तक पहुंच गये होंगे ।
16 जून से पटल पर हाज़िरी हो जायेगी ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय डा० छोटेलाल सिंह जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय विजय शंकर जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय नरेन्द्रसिंह जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।
उम्र के चढ़ाव पर तन्हा जुदाई जैसे गम्भीर विषय पर एक बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति के लिये आपको ह्रदयतल से बहुत बधाई , आदरणीय विजय निकोर जी , सादर।
आदरणीय विजय निकोर जी आदाब,
बहुत ही लाजवाब, उम्दा रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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