1212, 1122, 1212, 22
अजीब बात है, दुश्मन से यार होने तक,
वो मेरे साथ था, मेरा शिकार होने तक।
उबलते खौलते सागर से पार होने तक,
ख़ुदा को भूल न पाए ख़ुमार होने तक।
हमें भी कम न थीं ख़ुशफ़हमियां मुहब्बत में,
हमारा दर्द से अव्वल क़रार होने तक।
तुम्हारा ज़ुल्म बढ़ेगा, हमें ख़बर है ये,
तुम्हारे हुस्न का अगला शिकार होने तक।
ख़िज़ाओं के ये दरख़्तों से कहो, ज़ब्त करें,
बचा रखें ये पत्तियाँ बहार होने तक।
हर एक ज़िद से पिघलता हूँ, ग़र्क होता हूँ,
तुम्हारे सर पे नई ज़िद सवार होने तक।
तमाम उम्र मुझे ये कचोटता ही रहा,
मेरा वजूद मेरे तार-तार होने तक।
~मौलिक/अप्रकाशित।
~बलराम धाकड़
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया, आदरणीय नीलेश भाई।
तनाफुर का कोई बेहतर हल खोज रहा हूँ। कृपया आप भी कुछ सुझाएँ।
बचा रखें ये पत्तियाँ बहार होने तक।...
को,
बचा के रक्खें ये पत्ते बहार होने तक।
कर लें, तो ठीक रहेगा क्या?
सादर।
That is brilliant, consistent, Intense...
You have used shikaar as kaafiya twice!
आदरणीय बलराम धाकड़ जी बहुत ही सुंदर गजल बधाई हो
आ. बलराम जी
अच्छी ग़ज़ल हुई है .. बधाई ..
अजीब बात, साथ था.. इसके चलते तनाफुर हो रहा है ..
ख़िज़ाओं के ये दरख़्तों से कहो, ज़ब्त करें,... इन दरख्तों कहना ठीक रहता लेकिन बह्र का मसअला हो जाता
बचा रखें ये पत्तियाँ बहार होने तक।... इस मिसरे की बह्र देख लें
ग़ज़ल के लिए पुन: बधाई
हौसला अफजाई का बहुत-बहुत शुक्रिया, आदरणीय तेजवीर सिंह जी।
सादर।
बहुत बहुत धन्यवाद आपका, आदरणीय नवीन जी।
सादर।
हार्दिक बधाई आदरणीय बलराम जी।बेहतरीन गज़ल।
हर एक ज़िद से पिघलता हूँ, ग़र्क होता हूँ,
तुम्हारे सर पे नई ज़िद सवार होने तक।
आ0 बलराम धाकड़ जी अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई ।
बहुत बहुत शुक्रिया, जनाब राज़ साहब।
सादर।
आदरणीय बलराम धाकड़ जी, आदाब. वाह, शेर दर शेर सुन्दर ग़ज़ल, दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ. सादर
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