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गर मीर* ही न ध्यान रखेगा अवाम का। .....(४)

गर मीर* ही न ध्यान रखेगा अवाम का (*नायक )
फिर क्या करे अवाम भी ऐसे निज़ाम का 
***
अब तक न याद आई थी उसको अवाम की 
क्या रह गया यक़ीन फ़क़त आज राम का 
***
दौलत कमाई ख़ूब मगर इतना याद रख-
"बरकत नहीं करे कभी पैसा हराम का "
***
बेकार तो जहाँ में नहीं जिन्स* कोई भी (*वस्तु )
गर्द-ओ-गुबार भी कभी होता है काम का
***
इतने ख़फ़ा हुज़ूर न पहले कभी हुए 
भेजा जवाब तक नहीं मेरे सलाम का 
***
ख़ुद बेवफ़ा मगर करे उम्मीद प्यार की 
बोया जो खार पेड़ उगे कैसे आम का 
***
जब तक पियो नहीं तुम्हें कैसे पता चले 
साक़ी बग़ैर क्या मज़ा है यार जाम का 
***
जो हिज़्र में जला वही ये राज़ जानता 
क्या लुत्फ़ यार होता है फ़ुर्क़त की शाम का 
***
चाहत है अब बदल क़ज़ा ये पैरहन 'तुरंत' 
बस इंतज़ार रह गया तेरे पयाम का 
***
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी

(मौलिक और अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on January 1, 2019 at 3:51pm

आपका स्वागत है ब्रदर, यूँ ही अपने ज़ोरदार लेखन से हमें लुतफंदोज़ करते रहें, ईश्वर आपकी तौफ़ीक़ बनाए रखे. सादर. 

Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on January 1, 2019 at 3:35pm

जनाब राज़ नवादवी साहेब आपकी हौसला आफजाई के लिए नाचीज़ शुक्रगुज़ार है ,यूँ ही प्यार और मार्गदर्शन करते रहें | 

Comment by राज़ नवादवी on January 1, 2019 at 11:52am

आदरणीय गिरधारी सिंह साहब, आदाब. अच्छी ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए दाद के साथ मुबारकबाद. सादर. 

Comment by Samar kabeer on December 31, 2018 at 11:40am

// आप सभी शायरों को अपनी कीमती राय का तोहफा देते हैं ,आपके इस अहसान को जीवन भर भुला नहीं पाएंगे |//

अहसान कैसा मित्र,हम सब एक परिवार के सदस्य हैं,और एक दूसरे पर हमारा हक़ है,मैंने परिवार का हक़ अदा किया है बस ।

Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on December 30, 2018 at 10:33pm

आदरणीय Samar kabeer साहेब ,इतने शेर फ़राज़ साहेब के लिखने का मक़सद आपसे कुछ सीखना ही था | अब देखिये जुज़्वी और कुल्ली का मुझे मतलब ही नहीं मालूम था बल्कि ये लफ्ज़ ही मैंने पहली बार पढ़े | अब तक तो मुझे यही बतलाया गया कि अगर दोनों पंक्तियों के अंत में 'है ' होगा तो ऐब माना जाएगा लेकिन आप से मालूम हुआ ये ऐब नहीं है | अब अहमद साहेब की ग़ज़लों में ऐब को तो हम ठीक नहीं कर सकते | लेकिन आपने जो यह समझाया कि ऐब दूर कैसे कर सकते हैं वह मेरे अलावा और साहिबान के काम का जरूर होगा जो ग़ज़ल सीखने की कोशिश कर रहे हैं | आपकी इस बात का कायल हूँ कि अगर किसी शायर (चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो ),ने कुछ गलत किया इसका मतलब हम भी करें ,यह सोच ठीक नहीं | मैं भी अक़्सर लोगों को यही जवाब देता हूँ | कोशिश यही रहती है ग़ज़ल में तक़ाबुले  रदीफ़ ऐब न आये फिर भी कभी कभी चूक हो ही जाती है | आप सभी शायरों को अपनी कीमती राय का तोहफा देते हैं ,आपके इस अहसान को जीवन भर भुला नहीं पाएंगे | 

Comment by Samar kabeer on December 30, 2018 at 6:47pm

जनाब 'तुरंत' जी,दो दिन से ओबीओ के तरही मुशायरे में व्यस्त रहा इसलिए यहाँ नहीं आ सका ।

मैंने 'फ़राज़' साहिब के एक शैर के लिए कहा था,आपने लाइन लगा दी,ख़ैर !

तक़ाबुल-ए-रदीफ़ दो तरह का होता है,एक जुज़वी दूसरा कुल्ली, जुज़वी जैसा कि फ़राज़ साहिब के यहां पाया जाता है,और कुल्ली की मिसाल के लिए किसी का ये शैर देखिये:-

'अभी तो चाक पे मिट्टी का रक़्स जारी है

अभी कुम्हार की नीयत बदल भी सकती है'

इस शैर में रदीफ़ के दो जुज़ ऊला में आगये बड़ी ई की मात्रा और 'है' तो ये ऐब हुआ,और जो फ़राज़ या किसी भी जगह हो जुज़वी यानी रदीफ़ का एक जुज़ जैसे दोनों मिसरों में "है" शब्द का होना ऐब नहीं कहलाता,अब शाइर अगर थोड़ी सी तवज्जो दे तो उसके शैर से ये ऐब निकल सकता है,कभी बसूरत-ए-मुहाल गवारा करना पड़ता है,जैसे मैंने जो शैर मिसाल में पेश किया:-

"अभी तो चाक पे मिट्टी का रक़्स जारी है

अभी कुम्हार की नीयत बदल भी सकती है"

इसमें तरमीम करके तक़ाबुल-ए-रदीफ़ निकाल सकते हैं देखिये:-

'अभी तो चाक पे जारी है रक़्स मिट्टी का

अभी कुम्हार की नीयत बदल भी सकती है'

ऐब निकल गया ।

इसी तरह फ़राज़ के कुछ ऐसे शैर हैं जिनसे वो चाहते तो इस ऐब को निकाल सकते थे:-

'सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं

ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं'

इस शैर का ऊला यूँ कर दें तो ऐब निकल जायेगा:-

'सुना है बोले तो झड़ते हैं फूल बातों से'

ये शैर देखिये:-

'सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं

सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं'

इस शैर का ऊला बदल दें तो ऐब निकल जायेगा:-

'सुना है उसको सताती हैं तितलियाँ दिन में'

ये शैर देखिये:-

 

'यूँ दिल तह-ओ-बाला कभी होते नहीं देखे

इक शख़्स के पाँव से तो भौंचाल बंधे थे' 

इस का ऊला यूँ करें तो ऐब निकल जायेगा:-

'यूँ दिल नहीं देखे कभी होते तह-ओ-बाला'

'हर बज़्म में हम ने उसे अफ़्सुर्दा ही देखा

कहते हैं 'फ़राज़' अंजुमन-आरा भी कभी था'

इस शैर का ऊला मिसरा यूँ कर लें तो ऐब निकल जायेगा:-

'अफ़सुर्द: ही देखा उसे हर बज़्म में हमने'

कहने का तातपर्य ये है कि कुछ ऐब इसलिए छोड़ना पड़ते हैं कि उसे बदलने से शैर का हुस्न ख़त्म हो जाता है,कहीं ये ऐब थोड़ी मिहनत से निकल जाता है,यही मुआमला ऐब-ए-तनाफ़ुर का भी है ।

अब हम ये बात मानकर कि ये ऐब बड़े शायरों के यहाँ भी पाया जाता है,इसे बिल्कुल नज़र अंदाज़ कर दें तो ये हमारी ग़लती होगी,और वैसे भी अगर कोई बड़ा कोई ग़लती करता है तो छोटों को उसे ये कहकर नहीं दुहराना चाहिए कि हमारे बड़े भी ऐसा ही करते हैं ।

उम्मीद है बात स्पष्ट हुई होगी?

Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on December 29, 2018 at 11:15am

भाई Ganga Dhar Sharma 'Hindustan जी सराहना के लिए ह्रदय तल से आभार | 

Comment by Ganga Dhar Sharma 'Hindustan' on December 29, 2018 at 12:07am

...आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' साहब, बहुत ही उम्दा गजल .... हर शेर के लिए बधाई स्वीकार करें...

Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on December 28, 2018 at 10:37pm

शुक्रिया भाई PHOOL SINGH जी ,सराहना के लिए 

Comment by PHOOL SINGH on December 28, 2018 at 2:25pm

सुंदर ग़ज़ल रचना बधाई स्वीकारें

कृपया ध्यान दे...

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