2122/1212/22
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हार तूफ़ान से न मानी है
कश्ती ने तैरने कि ठानी है
मेरी पलकों पे ये जो पानी है
ऐ मुहब्बत तेरी निशानी है
हमने माना बहुत पुरानी है
पर बहुत ख़ूब ये कहानी है
दिल पे चस्पां है जो नही मिटती
यूूँ तेरी हर शबीह फानी है
राख मैं कर चुका तेरे ख़त को
याद लेकिन मुझे ज़बानी है
हर किसी दर पे ये नही झुकती
मेरी दस्तार ख़ानदानी है
पहली बारिश है तिफ़्ल बन जाओ
फेंक दो क्यूँ ये छतरी तानी है
आब-संदल कभी थे हम दोनों
आज इक आग दूजा पानी है
जिसका अंजाम जंग तक पहुँचे
बात इतनी नहीं बढ़ानी है
उम्र सरहद को सौंपने वाले
कौन तुझसा यहाँ पे दानी है
इश्क़, फ़ुर्क़त, विसाल, रुसवाई
आशिक़ों की यही कहानी है
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शबीह- तस्वीर/ चित्र
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गजेन्द्र श्रोत्रिय
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बढ़िया ग़ज़ल है आदरणीय गजेन्द्र जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.
आदरणीय गजेन्द्र जी, अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
आदरणीय गजेंद्र जी बहुत अच्छी गजल आपने कही छोटी बहर में अच्छे निकाले हैं दिली मुबारकबाद पेश करता हूं
सराहना के लिए हार्दिक आभार आ० फूल सिंह जी।
"भाई साहब " बहुत खूब उम्दा रचना बधाई स्वीकारें
जी जनाब समर कबीर साहब, ध्यान रखूंगा, हो गई ग़लती के लिए क्षमा करें. सादर.
अनुमोदन के लिए आपका आभारी हूँ आदरणीय समर कबीर साहिब।
राज़ साहिब,इस मंच पर उस्ताद शागिर्द की परिपाटी नहीं है,इसलिए मुझे उस्ताद न लिखा करें,हम सब एक परिवार के सदस्य हैं ।
आदरणीय Gajendra shrotriya साहब, सुन्दर ग़ज़ल के प्रयास पे दिली मुबारकबाद. बाक़ी, मंच के उस्ताज़ जनाब समर कबीर साहब ने जो इस्लाह फरमाई है यक़ीनन बहुत मुफ़ीद है. सादर.
' दिल पे चस्पा है जो सिवा उसके
तेरी हर इक शबीह फानी है'
इस शैर को यूँ कर सकते हैं:-
'दिल पे चस्पां है जो नहीं मिटटी
यूँ तेरी हर शबीह फ़ानी है'
'दस्तार' और 'संदल' वाला शैर रख सकते हैं ।
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