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जीने की आरज़ू तो है सब को खुशी के साथ
ग़म भी लगे हुए हैं मगर ज़िन्दगी के साथ
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नाज़-ओ-अदा के साथ कभी बे-रुख़ी के साथ
दिल में उतर गया वो बड़ी सादगी के साथ
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आएगा मुश्किलों में भी जीने का फ़न तुझे
कुछ दिन गुज़ार ले तू मेरी ज़िन्दगी के साथ
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ख़ून-ए- जिगर निचोड़ के रखते हैं शेर में
यूँ ही नहीं है प्यार हमें शायरी के साथ
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अच्छी तरह से आपने जाना नहीं जिसे
यारी कभी न कीजिये उस अजनबी के साथ
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मुश्किल में कैसे जीते हैं यह उनसे पूछिये
गुज़रा है जिनका वक़्त सदा मुफ़लिसी के साथ
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उसपर न ऐतबार कभी कीजिए " रज़ा
धोका किया है जिसने हमेशा सभी के साथ
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
खूबसूरत गज़ल के लिए मुबारकबाद , जनाब सलीम रज़ा साहब ....
आदरणीय सलीम जी, बहुत ही उम्दा गजल।
बहुत बहुत मुबारकबाद।।
आदरणीय सलीम रज़ा साहब आदाब,
सबकुछ समा दिया इस ग़ज़ल में आपने । कुछ वर्तनीगत अशुद्धियाँ हैं जैसे कूछ/कुछ, जिदगी/ ज़िंदगी , मुश्किल/ मुश्क़िल । बाक़ी बेहतरीन ग़ज़ल । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
जनाब सलीम रज़ा साहिब , उम्दा ग़ज़ल हुई है , मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ
शेर4 और शेर7 के सानी मिसरे को यूँ करके देखिएगा , शेर की सुंदरता बढ़ जाएगी
" यूँ ही नहीं लगाव हमें शायरी के साथ " | "करता है जो फरेब हर इक आदमी के साथ "
हार्दिक बधाई आदरणीय सलीम रज़ा रेवा साहब जी। बेहतरीन गज़ल।
ख़ून-ए- जिगर निचोड़ के रखते हैं शेर में
यूँ ही नहीं है प्यार हमें शायरी के साथ
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