गहरे तल पर ठहरे तम-सा,
ठहरा यह जीवन।
*
मौन तोड़ती एक न आहट,
घूरे बस निर्जन।
कौन रुका इस सूने पथ पर,
जो होगी खनखन।
घर आँगन दालानों की भी,
छाँव नहीं कोई।
दूर-दूर तक वीराना है,
गाँव नहीं कोई।
चले हवाएँ गला काटतीं,
सर्द बहुत अगहन।
*
कहीं चढ़ाई साँस फुलाए
कहीं ढाल फिसलन।
क़दम-क़दम पर भटकाने को,
ख़ड़ी एक उलझन।
लम्बा रस्ता पार न होता,
कितना चल आये।
चार क़दम पर हाँफ गये सब,
अपने ही साये।
छ्ल-छल करती आँखों ने भी
पायी बस बिछड़न ।
*
धड़कन की लय टूट रही है,
मन मनके टूटे।
ख़ुशियों को ईर्ष्या की पल-पल,
चढ़ी बाढ़ लूटे।
संघर्षों का अन्त नहीं है,
हो कोई मौसम
चाहे दिन हो उजियारे का
या रातों का तम।
अगवा सारी हुईं उमंगे
बेबस हैं तनमन।
#
अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
आदरणीय अशोक भाईजी,
आपकी गीत-प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाइयाँ
एक एकाकी-जीवन का बहुत ही मार्मिक वर्णन हुआ है. गीत के कथ्य में ठहरे हुए जीवन की ऊब और निस्सारता को शाब्दिक किया गया है. आपकी सतत रचना-प्रक्रिया से आपकी रचनाओं को एक विशेष बुनावट मिल गयी है जो एक रचनाकार के लिए उपलब्धि है. यह अवश्य है, कि कई पंक्तियों की व्याख्या तनिक और कसावट चाहती हैं.
गहरे तल पर ठहरे तम-सा, .... गहरे तल में ठहरे तम-सा
मौन तोड़ती एक न आहट,
घूरे बस निर्जन।
कौन रुका इस सूने पथ पर,
जो होगी खनखन .. ... इन दोनों पंक्तियों को आपस में बदल लें तो निस्सृत अर्थ तार्किक हो जाएगा.
घर आँगन दालानों की भी,
छाँव नहीं कोई .............. . इस पंक्ति को तार्किक होना होगा. आंगन की बात समझ में आती है, लेकिन घर और दालान का होना बिना छ्ज्जे के संभव नहीं. भले ही, छज्जा छिन्न-भिन्न हो, टूटा हुआ हो. फिर उनके लिए छाँव का न हो पाना तार्किक नहीं है. इसे यों समझा जा सकता है - घर आंगन दालानों में भी ठाँव नहीं कोई
दूर-दूर तक वीराना है,
गाँव नहीं कोई ... ... .. अब इस पंक्ति को पहले कर, दूसरी पंक्ति ’घर आंगन दालान..’ को बना लें.
चले हवाएँ गला काटतीं ... देह बेंधती चली हवाएँ ....
सर्द बहुत अगहन।
*
कहीं चढ़ाई साँस फुलाए .. .. कभी चढ़ाई साँस फुलाती
कहीं ढाल फिसलन।
क़दम-क़दम पर भटकाने को,
खड़ी एक उलझन।
लम्बा रस्ता पार न होता,
कितना चल आये।
चार क़दम पर हाँफ गये सब,
अपने ही साये।
छ्ल-छल करती आँखों ने भी ... . .आस-मिलन की है आँखों में
पायी बस बिछड़न । ............ .. पर दीखा बिछड़न
*
धड़कन की लय टूट रही है,
मन मनके टूटे।
ख़ुशियों को ईर्ष्या की पल-पल,
चढ़ी बाढ़ लूटे।
संघर्षों का अन्त नहीं है,
हो कोई मौसम
चाहे दिन हो उजियारे का
या रातों का तम।
अगवा सारी हुईं उमंगे ........... अब तो हवा उमंगे सारी
बेबस हैं तनमन।
मैंने अपनी समझ से कुछ सुझाव रखे हैं. इन पर सोच कर मुझे भी लाभान्वित कीजिएगा.
वस्तुतः, गीत का मुखडा एक वातावरण की रचना करता है. फिर उस गीत के अंतरे एक-एक कर उस वातावरण के होने को पुष्ट करते चलते हैं. यही गीति-प्रतीतियों का कुल व्यवहार होता है. कहन को लेकर पूरे गीत में तारतम्यता बनी रहती है.
आपकी गीत-रचना के लिए पुनः बधाइयाँ
शुभ-शुभ
आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। बहुत भावप्रवण गीत हुआ है। हार्दिक बधाई।
जनाब अशोक रक्ताले जी आदाब, बहुत उम्द: नवगीत लिखा आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
अगवा सारी हुईं उमंगे
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