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आदरणीय अर्चना त्रिपाठी जी, रचना पर आपकी उपस्थिति और टिप्पणी हमेशा ही मेरा उत्साहवर्धन करती है| रचना के समर्थन के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ|
साहस कर असली स्वरूप में सामने की सुंदर सीख देती लघु कथा के लिए बधाई
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी सर, आपको रचना पसंद आयी|
परिभाषा
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"जीवन का सत्य क्या है, पिताजी ?" "तुम बताओ.. क्या है ?" "मैं तो पूछ रहा हूँ न !.." "कुछ पूछने से पहले क्या ये नहीं बताओगे कि तुम ऐसे प्रश्नों के उत्तर के लिए सही पात्र हो ?"
भृगु सोच में पड़ गया. थोडी ही देर बाद वह लाइब्रेरी चला गया. उसका यह क्रम कई हफ़्तों चला. एक रविवार की दोपहर वह फिर पिताजी के पास आया - "पिताजी, जीवन का सत्य है सफलता ! यानी सुखी जीवन.. सुख-सुविधा, गाड़ी-बंगला, नाम-यश, विवाह-संतान.. यानि कि आनन्द.. " भृगु की आँखें रोमांच से बड़ी हो गयी थीं.
"तो फिर सेठ वैभवचन्द ऐसा निरीह जीवन क्यों जी रहे हैं ? वे तो अरबपति बिजनेसमैन हैं न ? पर आज वे पूरी तरह से बिस्तर पर हैं. अपने मन का भोजन तक नहीं कर सकते.. और भृगु, ये आनन्द क्या बला है ?"
भृगु को कुछ कहते न बना, वह सोचने लगा - "..आनन्द स्व-आरोपित प्रत्याशा की उपज है या अनुभूत गहन भावमुग्धता ? वाकई ये क्या है ?"
वह फिर हफ़्तों लाइब्रेरी की भिन्न-भिम्न पुस्तकें खँगालता रहा. एक दिन फिर पिताजी के सामने खड़ा हुआ - "पिताजी, आत्मीय तृप्ति ही आनन्द है. संतोष ही आनन्द है.."
"तृप्ति या संतोष ?"
"ये दोनों अलग-अलग हैं क्या ? मेरी समझ से तो दोनों.. "
"दोनों दो इकाइयाँ हैं.." - पिताजी की प्रखर आवाज़ सीधी-सीधी कानों में आयी - "..एक प्रक्रिया की अनवरतता का निरुपण है, तो दूसरी प्रक्रिया की पूर्णता का रुपायन है. अब बताओ इनमें से आनन्द किस के कारण संभव है ?"
भृगु फिर से सोच में पड़ गया था. अब वह अधिक से अधिक समय लाइब्रेरी में बिताने लगा. इस बीच उसकी बोली-चाली, उसका सोचना-विचारना, उसकी आदत, उसका व्यवहार सबकुछ बदल चुका था. इसी क्रम में वह अपने स्वाध्याय के साथ-साथ अनायास ही अपनी एकेडेमिक पढ़ाई पर भी ध्यान देने लगा. अच्छे से अच्छे अंकों में उसे सफलता मिलती गयी. यूपीएससी के पहले ही अटेम्प्ट में वह बेस्ट थ्री में आ गया था.
भृगु फिर पिताजी के सामने फिर खड़ा हुआ था - एक धीर-गंभीर, ओज से भरा किन्तु नम्र युवक ! उसकी आँखें झुकी हुई थीं. इधर पिताजी की आँखों मे आश्वस्ति की आत्मीय चमक थी. सीधी आँखों से ताकते हुए, हल्की मुस्कान के साथ उन्होंने पूछा - "बाइ द वे, दो साल हो गये न ? तुमने बताया नहीं भृगु, आनन्द किससे है ? तृप्ति या संतोष ? किससे ?"
भृगु ने शिष्टवत आँखें उठायीं - "कर्म.. क्रियाशीलता.. वस्तुतः आनन्द कार्य-प्रक्रिया में है.." भृगु समझ रहा था कि वह सही बोल रहा है, लेकिन उसकी आवाज रपटती-सी आ रही थी.
पिताजी निहाल थे. आँखें डबडबायी जा रही थीं. गला रुँध रहा था - "तो क्या, प्रक्रिया का ही प्रतिफल है ये सफलता ?"
"जी नहीं. समाज के सर्वसमावेशी स्वरूप को समझने का प्रयास आनन्द की परिभाषा का मूल है, पिताजी.. "
"सही.. ! लेकिन ये तो हर तत्त्व-पुस्तक की मीमांसा का मूल है. यही निष्कर्ष है. फिर अबतक क्या करते रहे ?.. "
"आनन्द की परिभाषा का प्रमाणीकरण !.. सफलता तो इसका अनुफलन मात्र है पिताजी, एक बाइ-प्रोडक्ट ! मुख्य है तत्त्व की परिभाषा का बोध.. "
"जीते रहो बेटा.. इस समाज को तुम्हारी ही आवश्यकता है.. जाओ आनन्द लो.. "
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(मौलिक और अप्रकाशित)
आ० सौरभ भाई जी, लघुकथा की सार्थकता और सुन्दरता तो एक तरफ, लेकिन मुझे जिस चीज़ ने अन्दर तक प्रभावित किया है वह है भृगु नाम का पात्र I यहाँ भृगु मात्र एक जिज्ञासु नहीं बल्कि एक मेटाफोर है, जो भृगु होते हुए भी बहुत सी बातों से अनजान है I इस लघुकथा से एक सबक और भी मिलता है कि पात्र का नाम भी रचना को ऊंचाई दे दिया करता है, मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें I
आदरणीय योगराजभाईजी, इस प्रस्तुति को मैंने जानबूझ कर इस आयोजन में सम्मिलित किया है.
वस्तुतः, आदरणीय, यह भृगु वही पौराणिक भृगु है. आज के संदर्भ में ! उसी तरह वह व्यक्तित्व के अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय स्तरों के अर्थ ढूँढता हुआ. उसका पिता वही भृगुवल्ली में वर्णित पिता है, आजके संदर्भ में !
जहाँ तक शिल्प का सवाल है, इस बार का आयोजन इस विधा-सम्बन्धी कई भ्रमों को तोड़ने के वातावरण केलिए याद किया जायेगा. लघुकथा के आयामॊं को जिस तरह से आपने सोपान दिये हैं, वह व्यक्तित्व के कोशों की तरह ही सामने आये हैं - अन्नमय कोश से आनन्दमय कोश तक, एक-एक कर ! यह प्रक्रिया अभी बहुत लम्बी चलनी है. आपकी इसी संवेदनशीलता का मैं कायल हूँ. एक बार में कुछ नहीं, बल्कि रुक-रुक कर, समझा-समझा कर !
लघुकथा किस विन्यास को कैसे जीती है, उसका अनुपम उदाहरण इस आयोजन में आपकी लघुकथा भी है. यह अवश्य है कि हमें इस विधा के कई रूप सामने लाने हैं. लेकिन यह भी सही है, कि मुझे आपकी ईमानदारी और विधासम्बन्धी विशद ज्ञान पर अदम्य भरोसा है.
आपसे फिर मुख़ातिब होता हूँ, आदरणीय.
सादर
मैं पूर्व में भी निवेदन कर चुका हूँ कि लघुकथा का "आकार" उसके "प्रकार" पर निर्भर करता है, इस वजह से ऐसी लघुकथायों को प्रस्तुत किया गया जोकि ५-७ पंक्तियों में लघुकथा निपटा देने के बिल्कुल बरअक्स हैं आ० सौरभ भाई जी I
दो पंक्तियाँ पढ़ता हूँ फिर ठिठक जाता हूँ .. अच्छा ?? फिर आगे बढ़ता हूँ ..ओ-हो ये भी .. हर वाक्यांत बहुत कुछ सोचने को विवश कर देता है .. कई बार पढ़ चूका हूँ कथा इसी स्वार्थ में कि इस लायक बनना है मुझे भी कि .."जीते रहो बेटा.. इस समाज को तुम्हारी ही आवश्यकता है.. जाओ आनन्द लो.. " सुन सकूँ .. आगे हरि इच्छा ..
आदरणीय सुधीरजी, इस प्रस्तुति को मान देने के लिए हार्दिक आभार.
आदरणीया नीता जी, आपका सादर आभार
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ पांडे जी ,आप से यह कहते हुए मुझे कोई संकोच नहीं हो रहा कि मैं लघुकथा की बारीकियॉ,तकनीकी विशेषतायें,व्याकरण की खूबियॉ/कमियां आदि की जानकारी नहीं रखता!मुझे आपकी लघुकथा कई बार पढने के बाद समझ आई!थोडी क्लिष्ट है!पर अच्छी है!हार्दिक बधाई!
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