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हमारे बीच का रिश्ता हुआ क्यूँ तल्ख अब इतना
कभी मेरी मुहब्ब्त में वो दीवाना भी होता था।
बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति तिलक सर...वैसे तो सभी शेर एक से बढ़कर एक हैं लेकिन ये मुझे बहुत पसंद आई.....बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति,.....बहुत खूब..
अरे साकी हिकारत से हमें तू देखता क्या है
हमारी ऑंख की ज़ुम्बिश पे मयखाना भी होता था।
लाजवाब शेर कहे
यह शेर खास पसंद आया
समय के साथ ये सिक्का पुराना हो गया तो क्या
कभी दरबार में लोगों ये नज़राना भी होता था।
वाह वाह जनाब क्या बात कही है, उम्द्दा शेर ,
सुनाये क्या नया 'राही', ठहर कर कौन सुनता है
हमें जब लोग सुनते थे तो अफ़साना भी होता था।
बहुत खूब तिलक सर , वो भी क्या दिन थे :-) बेहतरीन ग़ज़ल पर मुबारकवाद कुबूल करे |
//इधर इक शम्अ तो उस ओर परवाना भी होता था
नसीबे-इश्क में मिलना-ओ-मिट जाना भी होता था।// बहुत खूब कपूर साहिब !
//अरे साकी हिकारत से हमें तू देखता क्या है
हमारी ऑंख की ज़ुम्बिश पे मयखाना भी होता था।// गोया कि अब वोह दिन हवा हुए जब खलील मियां फाख्ता उड़ाया करते थे?
//समय के साथ ये सिक्का पुराना हो गया तो क्या
कभी दरबार में लोगों ये नज़राना भी होता था।// बहुत खूब !
//हमारे बीच का रिश्ता हुआ क्यूँ तल्ख अब इतना
कभी मेरी मुहब्ब्त में वो दीवाना भी होता था।// वाह वाह वाह !
//कभी जब याद करता हूँ तो मुझको याद आता है
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था।// क्या गिरह लगाई है साहिब जी - बहुत सुन्दर !
//भला क्यूँ भीड़ में इस शह्र की हम आ गये लोगों
मुहब्बत कम नहीं थी गॉंव में दाना भी होता था।// आहा हा हा हा - क्या हकीकत बयां की है दो मिसरों में - कमाल !
//सुनाये क्या नया 'राही', ठहर कर कौन सुनता है
हमें जब लोग सुनते थे तो अफ़साना भी होता था।// बात गहरी मगर बेहद सादगी से कही हुई - वाह !
अम्बरीश सर यह मैं समझ सकता हूँ कि आपके पिछले पांच दिन कितनी व्यस्तताओं भरे रहे होंगे| फिर भी अपने व्यस्त शिड्यूल से समय निकालकर मुशायरे में शिरकत करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया|
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था
वो वीराना जमाने भर से अनजाना भी होता था |
बहुत अच्छी गिरह बाँधी है| ज़माना किसी कि परवाह नहीं करता है..
जहाँ बीता था बचपन ये हजारों खेल खेले हम
उलझते थे पतंगों में तो सुलझाना भी होता था |
वाह!!!!बचपन की याद ताजा हो गई|
कभी बसतीं थी खुशियाँ बन बहारें आ के गुलशन की
धड़कते दिल निगाहें मिल के शरमाना भी होता था|
लाजवाब...निगाहों का शरमाना ..कितनी बार कहा गया होगा पर हर बार एक अलग ही एहसास होता है
बसे थे ख्वाब आँखों में मिले दीदार हसरत थी
अदाएं शोख लगती और तड़पाना भी होता था|
बहुत खूब
किताबों में छिपाते दिल उन्हीं में खुद को भरमाते
मिलाये रब अगरचे तब मिल पाना भी होता था |
किताबों में छिपाते दिल....बहुत उम्दा
आज तक याद है हमको वो मंजर और अफसाने
खुली जब आँख जागे हम तो घबराना भी होता था |
बहुत सुन्दर..अक्सर आँख खुलने के बाद घबराना होता है
इस ख़ूबसूरत गज़ल के लिए ढेरों दाद और मुबारकबाद कबूल फरमाइए|
बहुत खूब अम्बरीश जी , क्या सादगी है -
-जहाँ बीता था बचपन ये हजारों खेल खेले हम
उलझते थे पतंगों में तो सुलझाना भी होता था |
वाह सुभान अल्लाह !!
इस बार का रदीफ़ और काफि़या ग़ज़लियत की दृष्टि से टेढ़ा है फिर भी इसे खूबसूरती से निबाह ले जाना काबिले तारीफ़ है। आपका मत्ले का शेर इस नज़रिये से खास हो जाता है कि इसमें आपने तरही मिसरे पर खूबसूरती से गिरह लगाई।
हद से आगे भी निकल जाये, बयां मत करना
दर्द अपना है ये लोगों पे अयां मत करना।
वाली बात है कि घर में छाया वीरानापन ज़माने की नज़रों में न आये।
खूबसूरत शेर कहे हैं आपने।
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