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जी बहुत शौक़ से ..बधाई की तो बहुत आवश्यकता होती है हम जैसे नौसिखियों को .. धन्यवाद आ० प्रदीप नील जी..
आ० सीमा सिंह जी, मैं इस लघुकथा को पढ़कर बहुत भावुक हो गया हूँ, आँखें नम होती होती रह गईं I दरअसल बहुत दफे ऐसा होता है कि व्यक्ति अपनी अधूरी आकांक्षाएं अपने बच्चों की इच्छाएँ पूरी करके संतुष्ट करता है I मुझे इस लघुकथा में कई जगह खुद का अक्स नज़र आया I बहुत से ऐसे किस्से हैं मेरे ज़ेहन में, किन्तु अभी उनका खुलासा करना अभी संभव नहीं I बहरहाल, लघुकथा मन को छू गई, बेहतर शिल्प-शैली, सुगठित स्वरूप एवं प्रवाहमई इस लघुकथा हेतु मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें I
हार्दिक बधाई आदरणीय सीमा जी!आम आदमी की घरेलू समस्याओं को कितनी बारीकी और खूबसूरती से पिरोया है!मज़ा आ गया!पुनः बधाई!
आभार आ० तेजवीर जी..
सर आपकी ही प्रेरणा है जो मैं यहाँ कुछ रख सकी इतने बड़े मंच पर उपस्थिति ही बड़ी बात है.. फिर आपके मन को छू लेने वाले भाव के आसपास से कथा गुजर जाना तो मेरे लिए बहुत बड़ी बात है .. बस अब तो ईश्वर से यही प्रार्थना है आपकी शाबासी पथ-प्रदर्शक बन मुझे हमेशा सही राह दिखाए और कुपथगामी होने से रोके.. सादर..आदरणीय प्रभाकर सर..
कहीं अति तो कहीं अभाव ,ये ही त्रासदी है हमारे देश की सुन्दर कथा तत्व सुन्दर शिल्प ,बधाई सीमा जी
आभार आ० प्रतिभा जी..
"उदास आँगन बुहारती लड़की की आँखों में अचानक दीवाली के दिए जल उठे थे।" इस प्रकार लड़की की आकांक्षा पूर्र्ण होने पर आपकी कहानी चरमोत्कर्ष पर सफल समाप्त हुई | बहुत बहुत बधाई
बहुत बहुत धन्यवाद आपका आदरणीय..
बहुत बढ़िया रचना , अंत बहुत प्यारा है | किसी का त्याज्य भी किसी और के लिए कितना सुखद हो सकता है , बधाई आपको
आदरनीया सीमा जी, इस प्यारी लघुकथा की बधाई कुबूल करें
"सिपहसलार" - (लघुकथा)
बीज अंकुरित हो चुका था। आस- पास मौजूद कुछ एक पेड़ों की जड़ें नवांकुर के उज्ज्वल भविष्य के लिए दुआयें कर रही थीं । ज़रा सा सुकोमल तना तन कर भूमि के बाहर आकर सूर्य का प्रकाश पाने को लालायित सा था । बाहर ज़मीन पर खड़े पेड़ आपस में जो विचार विमर्श कर रहे थे, वह सब अब उसे बारी-बारी से सुनाई दे रहा था । नवांकुर के दिलो-दिमाग़ को उनकी सभी बातें बारी-बारी से झकझोर रहीं थीं -
"कितने अरमान थे कि पथिकों को छाया देंगे, लेकिन पथिकों को फुरसत ही नहीं कि हमारे नीचे कुछ देर ठहरें । "
"हमने सोचा था कि मानव द्वारा बिगाड़े गये पर्यावरण के कल्याण हेतु अपना कुछ श्रमदान, अंशदान देंगे, लेकिन यहाँ तो हम अपने ही अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं मानव से ही !"
"एक-एक करके जैसे-तैसे हमारा कारवाँ बनता है अपने मिशन के लिए , हम में से कोई शहीद हो जाता है, तो किसी की निर्मम हत्या कर दी जाती है ! "
"सही कहते हो भाई, हम में से कई तो मौसम के बदलते तेवर से बीमार और ज़ख़्मी हो जाते हैं और बेमौत मारे जाते हैं !"
"नवांकुरों को हम क्या मार्गदर्शन करें, उन्हें कैसे प्रोत्साहित करें इस स्वार्थी प्रदूषित वातावरण में !"
इन सब बातों को सुनकर वह नवांकुर तना हतोत्साहित हो कर अपने आसपास मौजूद उन जड़ों से पूछने लगा - " क्या मैं यहीं आप लोगों के साथ रह सकता हूँ जीवन भर ?"
"नहीं, तुम्हें अपने मिशन पर जाना ही होगा ! वैसे भी यहाँ हमारे कौन से अरमान पूरे हो रहे हैं, संघर्ष तो हम भी कर रहे हैं न !" - जड़ों ने निराश स्वर में कहा - " जल संकट, भूमि-क्षरण और प्रदूषण जैसी तकलीफों से हम भी तो दो-चार हो रहे हैं !"
नवांकुर तना कभी भूमि की तरफ़ रुख़ करता, तो कभी भूमि के बाहर पेड़-पौधों को देखता ! वह विकास यात्रा के पहले सोपान पर ही अपनी इच्छाओं व सपनों को लेकर बहुत ही सशंकित, विस्मित, अचंभित सा हो रहा था !
उसकी मनोदशा को समझ कर बहुत नज़दीक वाले पेड़ ने उससे कहा - "घबराओ मत, इस धरा पर यह सब मानव का ही किया धरा है ! मानव अपने हितार्थ कितना भी स्वार्थी क्यों न हो जाए, अंततः वह हमें ही तो याद करता है ! सो बस , संघर्ष करते हुए तुम्हें जवान होना है और पर्यावरण संतुलन के संग्राम में एक सिपहसलार यानी सेनानी की भूमिका निभानी है बिना किसी स्वार्थ और लिप्सा के !"
(मौलिक व अप्रकाशित)
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