आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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एक चुटकुला है शायद बहुतो ने सूना होगा, हालाकि उसे यहाँ नहीं लिखा जा सकता फिर भी हिंट्स देता हूँ ....पहले उसको एड्स होगा, फिर उसकी पत्नी को फिर भाई को फिर भौजाई को फिर बाप को माँ को पडोसी को etc.
लघुकथा क्या सन्देश दे रही है यह भी मायने रखता है.
मुझे बिलकुल यह लघुकथा अच्छी नहीं लगी. सादर.
दोष आपकी पसंद या कथा का नहीं हैं.. सच्चाई की तासीर ही ऐसी होती है सर, स्त्री कह दे बेहया ना कहे तो सहनशील.. सादर करबद्ध.
जैसे क भी पोशीदा रहने वाले सबंध जैसे मंजरे आम पर आ रहे, एक नई सोच को जन्म दे रही है , जो इन रिश्तों को कुबूल करने को तैयार हो रही है - अच्छी लघुकथा के लिए धन्यवाद
आदरणीया सीमा जी ,एक पाठक के तौर पर मै आपकी रचनाओं की प्रशंसक हूँ , पर आपकी इस कथा के कथ्य से बिलकुल सहमत नहीं हूँ कथा का शिल्प और कसावट बहुत सुन्दर है जिसके लिए आप बधाई की पात्र हैं
माँ ने अपने जीवन के कडवे अनुभव के मद्देनज़र ही ऐसी सलाह दी होगी. शायद पति बिना उसका जीवन ऐसा बीता होगा कि उसे लग रहा होगा कि उस तुलना में बेटी हर हाल में अपने ससुराल में ही रहे तो बेहतर है. बेटी के लौट आने और उसके बाद कि तकलीफों से बचने के लिए माँ ने ऐसी सीख दी होगी जो आमतौर पर नहीं दी जाती हैं. बरहाल एक हट की सी भाव समेटे आपकी लघु कथा.
मोहतरमा सीमा सिंह साहिबा , माँ और बेटी के माध्यम से समाज पर कटाछ करती सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
लघुकथा की प्रवृत्ति ऐसी है कि यह पाठक को जीवन के सत्य से रूबरू करवाती है और इस सत्य पर किसी भी प्रकार का आवरण नहीं होता। वर्तमान यांत्रिकी युग में मानवीय दृष्टिकोण भोगवादी हो कर रह गया है और व्यक्तिगत स्वार्थ लाभ के लिए गलत को अनदेखा करने की प्रवृत्ति सामान्य व स्वभाविक है। लघुकथा में जनसाधारण की सामान्य मानसिकता को ही उभारा जाता है। इसलिए इसका कथ्य आदर्श, बोध अथवा उपदेश रहित होता है और इसी विश्वसनीय यथार्थपरकता की वजह से पाठक और लघुकथा के कथ्य में सीधा सबंध स्थापित होता है। कबूतर के आंखे मूंदने से उसका बिल्ली से बचाव नहीं होता। सो सत्य से अनदेखा कर यथार्थ स्थितियों से मुँह नहीं फेरा जा सकता। लघुकथा का तो यह वैश्ष्टिय है कि जो हमारे इर्द-गिर्द घटित हो रहा वह उसे पाठकों तक पहुुंचाती है भले ही यह सत्य किसी को पसंद आए या ना आए। लघुकथा में यथार्थपरक अनुभूति ही इसकी सफलता का सबसे बड़ा मंत्र है। लघुकथा का उद्देश्य सामाजिक विसंगतियों-विकृतियों एवं व्यक्ति की बाह्य व आन्तिरक जटिलआओं की ओर संकेत करना है और लघुकथा अक्सर समस्याजनक स्थिति की ओर संकेतात्मक अभिव्यक्ति देकर ही मौन हो जाती है। इसमें समस्या समाधान हेतु निदान लेखक द्वारा आरोपित कम और पाठक द्वारा खोजा अधिक होता है। आजकल ये भी देखने में आया है कि लघुकथा में ‘साकारात्मक संदेश’ देने के भ्रम में रचनाकार यथार्थ को अनदेखा कर कथा का अंत ऐसा कर देता है जो वह चाहता है। यथार्थ और ‘जो होना चाहिए के बीच’ के इस विरोधाभास के वजह से कथा कमजोर हो जाती है और वह बोधकथा बन कर रह जाती है। एक लघुकथाकार को इससे बचने का प्रयास करना चाहिए। सादर !
बहुत से घरों की स्याह सच्चाई है ये लेकिन माँ द्वारा इसको स्वीकार करने की सलाह देना कहीं न कहीं गले से नीचे नहीं उतरता है| शायद ये हमारी सोच हो , बहरहाल रचना आपकी है तो ट्रीटमेंट भी आपका ही रहेगा| बधाई आपको इस रचना के लिए
कथा कसी हुई और चुस्त होने के बावजूद कथ्य कृत्रिम सा और कथा वास्तविकता से दूर लगती है।
//“माँ, इनके भाभी के साथ संबंध हैं... मैंने इनको खुद अपनी भाभी के कमरे से रात-विरात निकलते देखा है,” बेटी का दर्द शब्दों से छलक पड़ा. “और पूछने पर बेहयाई से उत्तर मिला कि भाई फौज में हैं तो भाभी का ख्याल भी तो मुझे ही रखना होगा...”//
यहा फौजी का जिक्र करने से बचना चाहिए।अगर कोई फौजी या उसकी पत्नी या उसके परिवार वाले यह कथा पढ़ेंगे तो उन्हें यह कथा क्या संदेश देती है ? क्या यह कथा यह संदेश नही देती है कि फोजी के सेना में जाने के बाद उनकी औरते बदचलन हो जाती है ?
//“उनकी बदचलनी सहन करना समझदारी है, माँ?” बेटी ने दुःखी स्वर में कहा.
“हाँ, बेटा, समझदारी ही है, ये. अगर मुझे भी मेरे समय में कोई समझाने वाला होता, तो अपने पति को छोड़ मैं भी यूँ कष्ट भरा जीवन बिताने को मजबूर ना होती..//
मुझे लगता है कि कोई भी माँ अपनी बेटी को ऐसी सलाह नही देगी जैसी इस कथा के उपरोक्त अंतिम पेरा में माँ ने बेटी को दी है। एक सामान्य पाठक के रूप में जो विचार इस कथा को पढ़कर मुझे आए वोही लिखे है।बधाई आ.सीमा सिंघ जी इस लघुकथा के लिए जिसने सबको सोचने पर बाध्य कर दिया। सादर।
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