आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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भावों की, सुदर काव्यात्मक प्रस्तुति मन को छू गयी. देवदार के कटने से ले कर समाज का हर दुष्कर्म बस चल रहा है, जिन्दगी का तमाशा चल रहा है और हमसब तमाशबीनों की भीड़ मूक दर्शक बनी "किसी " का इन्तजार करती हुई.
aadrniy samyik pida ka varnan sahi se
हर आदमी यही उम्मीद किये बैठा रहता है कि कोई और आएगा क्रांति करने के लिए| विषय पर बढ़िया प्रस्तुति, बधाई आपको
जनाब शारदिन्दु साहिब , प्रदत्त विषय पर आधारित सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
आ० डॉ शरदिंदु मुकर्जी जी इस लघुकथा के लिये बधाई स्वीकार किजीए.
आदरणीय शरदिन्दु जी, आपकी प्रस्तुति इस आयोजन की उपलब्धि है ! हार्दिक बधाइयाँ ! दो भिन्न बिम्बों को जोड़ने का एक विशेष प्रयास इस लघुकथा को रोचक बनाता हुआ है. हरि-हरि !
इस लघुकथा का विन्यास अत्यंत सधा हुआ है लेकिन तार्किकता के सापेक्ष एक प्रश्न अवश्य घुमड़ रहा है.
जैसे, वन्य-प्रांगण में बूढ़े देवदार का धराशायी हो कर गिरना और शहरी वातावरण में ’असहाय, असुरक्षित बहू, बेटी और बच्चों’ का शीलहरण होना’ इस कसौटी पर एक दूसरे के समानान्तर कैसे आ सकते हैं ? ऐसा करने के लिए तार्किक वातावरण का निर्माण आवश्यक प्रतीत होगा, ऐसा मुझे लगता है.
और, आरी के आखिरी वार ..
आदरणीय, आरी की रेघारी या आवृति होती है. वार तो कुल्हाड़ी की होती है है न ?
तो, ये तो हुई तार्किकता की कसौटी पर प्रस्तुति को कसने की कोशिश !
अलबत्ता, ’शिखर’ पर अधिकारियों का तमाशबीन बना रहना अवश्य सिहरा देता है. यह इस लघुकथा की बिम्बात्मकऊँचाई है.
वाह वाह वाह
सादर बधाइयाँ और शुभकामनाएँ
आदरणीय शरदिन्दु जी, सुन्दर कथा. शिखर को तमाशबीन बना कर करारा आधात किया है.
//आरी के आखिरी वार से// वार कुल्हाडी़ का होता है. सादर.
कथ्य की दृष्टि से लाजवाब लघु कथा हुई है | "आरी के वार" की जगह आरी के धार से लिखना ज्यादा उचित होगा | सादर
अन्तिम पंक्ति बहुत बड़े सच को बयाँ कर रही है, अकर्मण्यता हावी होती जा रही है और महापुरुषों के अवतरण का स्वपन आँखों में रख कई लोग सोये हुए हैं| सादर बधाई स्वीकार करें इस रचना के सृजन हेतु, आदरणीय डॉ शरदिंदु मुकर्जी जी|
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