आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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वाह्ह्हह्ह,अभी तक केवल स्वयं की इच्छाओं का गला घोटा था समझदारी के नाम पर, इस बार समझदारी की आड़ में हत्या का पाप भी सिर पर ढोना पड़ता, दबे हुये आक्रोश का सार्थक प्रस्फुटन ,, अत्यंत सुन्दर सृज़न
मोहतरमा सीमा साहिबा , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती और भावनाओं को झकझोरती सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
समझदारी की घुट्टी पिला -पिलाकर ही उसे सनातन काल से ही सलीब पर चढ़ाया गया है . एक सार्थक क्षण विशेष की प्रस्तुति हुई है आपके द्वारा . बहुत ही खुबसूरत लघुकथा बन पड़ी है आपकी आदरणीया सीमा जी ,बधाई प्रेषित है .
बहुत समझदारी दिखाई समझदार ने , आदरणीय सीमा सिंह जी बधाई ,सुन्दर ,सारगर्भित,कथा हेतु ।
“नहीं चाहिए मुझे ये समझदारी का तमगा जो मुझे अजन्मे की हत्या में भागीदार बनाता होI” पति और सास पर बहु का आक्रोश लघु कघा को सार्थक और संदेशात्मक बना रहा है } बहुत बहुत बधाई आ, सीमा सिंह जी
आदरीया सीमा जी. बहुत सुन्दर कथा कही है. समझदार होने का हथौडा़ ही था जो उसके मन को आक्रोशित कर रहा था. सादर.
वाह! वाह! क्या समझदारी से आपने समझदार का आक्रोश दिखया बेहद उम्दा. ह्रदयतल से बधाई आपको.बस एक बात खटक रही क्या एक " समझदार " शब्द को बार बार दोहराया जा सकता है. मै इस विधा मे नई हूँ लेकिन तकनिक के ज्ञाता कहते है कि शब्दों का दोहराव ना हो.आप इस पर कुछ प्रकाश डाले तो सिखने के क्रम मे एक नई बात जुड सकती है.
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