आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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जिम्मेदारी- (आक्रोश विषयाधारित)
घर का चूल्हा उसी की दिहाड़ी का मोहताज़ था और ठेकेदार था कि रामलीला के आयोजन में स्वयं को व्यस्त बता कर उसे कई दिन से टरकाये था।
आज उसनें ठान लिया था कि किसी भी हालत में खाली हाथ घर नही लौटेगा। ठेकेदार उसे पंडाल के बाहर ही खड़ा मिल गया। वह लपक कर ठेकेदार के सामनें जा खड़ा हुआ।
उसे देखते ही ठेकेदार नें पहले तो उसे टालनें का प्रयत्न किया पर जब वह टस से मस न हुआ तो उसे दुत्कारते हुए पंडाल में चला गया।
निराश होकर वह वापस चल दिया । तभी ठेकेदार नें उसे आवाज़ लगाई । पलट कर वह फ़िर आ खड़ा हुआ ।
"आज एक आदमीं नही आया है। अगर चाहो तो उसका पात्र तुम कर सकते हो। पैसा.. तुरन्त मिलेगा।" ठेकेदार नें चारा फेंका। मरता क्या न करता ..वह सहमत हो गया।
अपनी हड्डियों के ढाँचे पर उसनें बन्दर की कॉस्ट्यूम चढ़ाई और दुबक कर मंच पर जा खड़ा हुआ। मंचन शुरू हो गया।
कुछेक प्रकरण के बाद सागर पर सेतु बाँधने वाला प्रकरण आरम्भ हुआ। "प्रभु ! आपकी सेना में ये दो वानर ऐसे है जिनके स्पर्श मात्र से पत्थर पानी में तैरने लगेंगे।" समुद्र का पात्र निभा रहे अभिनेता ने उसके साथी नत्थू के साथ उसकी ओर भी संकेत किया। पर्दे के पीछे खड़े ठेकेदार के घुड़कने से दोनों मंच पर आगे आ गए।
"आगे बढ़ो प्रिय वानरों ! सेतु निर्माण अब तुम्हारा दायित्व है।" राम बनें अभिनेता ने दोनों में जोश फूंका।
मौक़ा पाते ही उसने झटके से माइक झपटा और भभक उठा।
"घर का चूल्हा भी हमाई जिम्मेदारी है। अब तो जे पत्थर तभी उतरायेगे जब ये हरामी ठेकेदार हमाई दिहाड़ी देगा। "आक्रोश से दहाड़ते हुए उसनें वानर बनें नत्थू को कोहनी मारी तो लपुझैय्याँ सा नत्थू भी उसके बगल में तन कर खड़ा हो गया।
मौलिक व अप्रकाशित
भूख का मजहब नही, भूख को शर्म भी नही, भूख किसी का लिहाज़ भी नहीं करती ... ये तो आत्मा की हूक है उठती है तो बस उठती ही है... और कमज़ोर से कमज़ोर भी विरोध कर उठता है. बहुत बहुत बधाई आपकी कथा पर.
आदरनीय सुधीर द्विवेदी जी आप ने सही कहा. भूख का कोई मजहब नहीं होता. सुन्दर लघुकथा . बधाई आप को ,.
वाह i सुधीर जी , अपने शहर में बचपन में देखी रामलीला की याद आ गई ,आपका कहानियों का concept गजब का होता है . एक तीर से कई शिकार कर दिए आपने , हार्दिक बधाई आपको ....
"घर का चूल्हा भी हमाई जिम्मेदारी है। जब कई पेट भूखे हों और तुम पर ही आश्रित हों तो वहाँ आक्रोश का ज्वालामुखी तो फूटेगा ही |
वो भी ऐसे सही वक़्त में फूटा जिससे ठेकेदार की सारी पोल पट्टी खुल गई पढ़कर मजा आ गया |
इस सुन्दर सार्थक लघु कथा के लिए बहुत बहुत बधाई आ० सुधीर द्विवेदी जी |
हार्दिक बधाई आदरणीय सुधीर जी! बहुत सुंदर लघुकथा! आक्रोश मनुष्य के मन मस्तिष्क पर किस कदर हाबी होता है, इसका सुंदर उदाहरण देती लघुकथा!
//आपकी सेना में ये दो वानर ऐसे है जिनके स्पर्श मात्र से पत्थर पानी में तैरने लगेंगे।//
ऐसे कौन से वानर राम जी की सेना में थे भाई सुधीर जी? हाँ, नल और नील नाम के दो अभियंता अवश्य थेI तो पत्थर तैराने की बात को सिविल इंजीनिअरिंग में परिवर्तित कर रामसेतु बनाने से इंकार कर देना कैसा रहेगा? वैसे इसके इलावा बाकी सबकुछ उत्तम है, जिस हेतु हार्दिक बधाई प्रेषित हैI
जनाब सुधीर साहिब , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
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