आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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आदरणीया राहिला जी, बहुत सुन्दर कथा. एक सेट परिपाटी को काटते हुये आपने अबला को जैसे बला (जेबकतरी) बनाया है वो सुन्दर है.
"लड़का मुँह से खून पोछते हुये बोला।" अगर इसे.... मुँह में भर आये खुन को थुकते हुये...किया जाये तो शायद लड़के का आक्रोश ज्यादा दिखेगा...सादर.
आ. राहिला जी एक अलग से कथानक के साथ जनता के आक्रोश का आपने बखूबी चित्रण किया है. सच है आजकल नारी अबला से सबला तो बन रही है लेकिन बराबरी करने की होड मे अपने प्रकृतिक स्वभाव के विपरीत कर्म को भी धन के लिये प्राधान्य देने लगी है. "मतलब ये साहब! कि वो कोई अबला लड़की नहीं थी,जेबकतरी थी जेबकतरी ।"लड़का कटी जेब दिखता हुआ, बगलें झांकती भीड़ पर जलती हुई नजर डालता हुआ बोला ।" ये पंक्ति ना भी लिखती तो रचना "मतलब" के साथ पूर्ण होकर अगली रचना का आधार बन सकती थी जैसा की लघुकथा के तकनीकि पक्ष मे यह बात कही गई है. बधाई आपको इस रचना के लिये
ऐसी स्थिति में भीड़ महिला का ही साथ देती है, बढ़िया रचना विषय पर, बधाई आपको
वाह राहिला जी,भीड़ का मनोविज्ञान हमेशा विवेकहीन ही होता है.' वो कोई अबला लड़की नहीं,जेबकतरी थी' पूर्वाग्रह तोड़ती रचना.सुन्दर प्रयोग.
बढ़िया कथा आदरणीया राहिला जी बधाई स्वीकारें |
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