आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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आपसे पूर्ण सहमत हूँ.लघु कथा के फ्रेम से बाहर न निकल जाये इस भय से अपनी कलम को रोक लिया.
आ. आशा जी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि आपकी रचनाओ की खासियत होती है जिसे आपने बडी सहजता से निभाया. ह्रदयतल से बधाई आपको
बहुत खूब कहा आदरणीया आशा जी | रचना बहुत सुंदर हुई है ,बधाई स्वीकारें |
‘वेतन में कटौती’
‘वह’ अनुबंध में काम करता है, समय से आता है पर अक्सर काम के दबाव में विलम्ब हो ही जाती है. बड़ी ईमानदारी से काम करता है, कभी भी ‘न’ नहीं करता है. विभाग की हर सामग्री को सम्हाल कर रखता है, कभी किसी भी चीज का दुरूपयोग नहीं करता. दोपहर में खाना खाकर भी आराम नहीं करता, बल्कि कुछ तकनीकी चीजों का अध्ययन करता रहता है. साहब लोगों का व्यक्तिगत काम भी हंसते-हंसते कर देता है. वैसे वह कभी अनुपस्थित नहीं होता. एक बार उसे आवश्यक काम से बाहर जाना पड़ा और तीन दिन की हाजिरी नियमानुसार कट गयी. २७/३० = ०.९ महीने के वेतन मिलने चाहिए. नीचे वाले साहब ने अप्रूव भी कर दिया. पर ऊपर वाले साहब (जिसकी गाड़ी वह अक्सर धो दिया करता था) ने कहा – “तुम तो २६ दिन ही ड्यूटी करते हो. इसलिए तुम्हारा हिशाब होता है २३/२६ = ०.८८५ महीना और वेतन इतना का ही मिलेगा.” उसे कुल १२० रुपये का नुक्सान हुआ. वह मन ही मन बहुत दुखी हुआ. दूसरे साहब उसके प्रति सांत्वना व्यक्त कर रहे थे और बड़े साहब को कोस रहे थे.
आज फिर वह बड़े साहब की गाड़ी धो रहा था. आज उसने काफी देर लगाई गाड़ी धोने में. फिर चाभी देकर घर जाने ही वाला था कि साहब को भी घर से जल्दी आने का बुलावा आ गया. गाड़ी स्टार्ट न हुई तो उन्होंने ‘उसको’ आवाज लगाई. ‘वह’ फ़ौरन आ पहुंचा और गाड़ी में धक्के लगाकर गाड़ी स्टार्ट करवा दिया. आज उसका ‘आक्रोश’ शांत हो चुका था.
(मौलिक व अप्रकाशित)
आदरनीय हिसाब बराबर की तर्ज पर बढ़िया रचना . सुन्दर .
उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय ओमप्रकाश क्षत्रिय जी!
आक्रोश की उत्तम अभिब्यक्ति प्रस्तुत करती सुन्दर रचना...
उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी साहब!
वाह वाह। गाड़ी का स्टार्ट न होना बिना कहे ही सब कुछ कह गया आ. जवाहरलाल सिंह जी। प्रदत्त विषय से पूर्ण न्याय करती हुई इस लघुकथा हेतु मेरी हार्दिक बधाई प्रेषित है। लेकिन रचना में हिसाब-किताब के ब्यौरे ने दाल में कंकर का काम कर दिया। अब आदमी कथा पढ़े कि जमा-तफ़रीक़ करें? ज़रा इस ओर भी ध्यान दें.
आदरणीय योगराज सर, हिसाब किताब को संशोधित कर उसे अलग कर दूंगा ... दरअसल यह सत्य घटना पर ही आधारित है!
बहुत अच्छी रचना ,आक्रोश को जिस तरह से अंत में रोपित किया है वो काबिले तारीफ़ है ,हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको आदरणीय जवाहरलाल सिंह जी
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