आदरणीय साथिओ,
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आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी , विनम्र आभार।
इस रचना में कथा क्या है और कहाँ है आ० डॉ टी आर सुकुल जी.
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी, मैं जानता था कि इस कथा को बहुत कम मित्रगण समझ पाएंगे। यदि इस कथा पर आपका मत इस प्रकार है तो मुझे मौन रहना ही उचित लगता है। परंतु मैं आग्रह करता हूँ की एक बार उसे नीचे दिए गए सन्दर्भ के परिप्रेक्ष्य में फिर से पढ़ने का समय निकालें :-
" उस परमसत्ता परमपुरुष के परम मन में निर्गुण से सगुण होने का विचार आते ही परमाप्रकृति ने इस विराट सृष्टि को रच दिया। उसने यह स्थापित कर दिया कि क्रमागत विकास करते हुए प्रत्येक इकाई सत्ता वापस परमसत्ता में आ जाएगी , पर सृष्टि का आधे से अधिक रास्ता पर करने के बाद की अवस्था में मनुष्य रूप में पहुँच कर उसकी विचार तरंगें इस प्रकार व्यतिक्रमित हो गई कि वे अपने को पृथक मान कर अपने मूल लक्ष्य से भटक गईं। परमसत्ता परमपुरुष चाहते हैं कि यह सृष्टि की लीला शीघ्र समाप्त हो जाए पर स्वप्न के भीतर अनेक स्वप्न देखते हुए इसी को अंतिम सत्य मानकर ये मनुष्य मानवता की कीमत पर उसे लगातार बढ़ाते जा रहे हैं और वह सिवाय साक्षी बने रहने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे हैं। अपने द्वारा निर्मित किए गए इस दुर्ग को अपनों के द्वारा ही क्षरण किये जाने का दृश्य देखकर वह दुखित हैं। " सादर .
आ० डॉ सुकुल जी,
सादर प्रणाम.
मैं कभी भी किसी रचना पर बिना सोचे समझे बात नहीं किया करता. जो भी कहता हूँ बहुत ही संजीदगी और ज़िम्मेवारी से कहा करता हूँ. क्योंकि बतौर एक विद्यार्थी इस विधा से मेरा सम्बन्ध उतना ही पुराना है जितना कि अपनी मूछों से. सरलता और सादगी लघुकथा के आभूषण कहे माने गए है, बात यदि सरल ही न रही तो लघुकथा बेजान हो जाया करती है. उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि लघुकथा में भाषा पांडित्य अथवा आध्यात्मिक दृष्टान्त के लिए अधिक स्थान नहीं है.
अब रही आपकी लघुकथा की बात; सबसे पहले तो आपको यह जानना होगा कि किस कथा में कथा-तत्व ही न हो उसे कथा कैसे और क्यों कहा जाए? न इसमें कोई कथा है, न कोई चरित्र चित्रण न ही कथोपकथन, मात्र आत्मसंवाद है. वर्तमान स्वरूप में यह किसी लघुकथा का कथानक तो हो सकता है, किन्तु लघुकथा बिलकुल नहीं. अब मेरी टिप्पणी पर आपकी प्रतिक्रिया, आपने फरमाया है: :
//मैं जानता था कि इस कथा को बहुत कम मित्रगण समझ पाएंगे।//
इसमें से 2 बातें उभर कर सामने आ रही हैं:
1. कहीं आप इस मंच के रचनाकारों के बौद्धिक स्तर को निम्नस्तरीय तो नहीं मान रहे हैं? (यदि ऐसा है तो मुझे इस बात पर घोर आपत्ति है)
2. कहीं यह रचना स्वयं आपको उलझी हुई तो नहीं लगी जिस कारण आपको ये अंदेशा था कि अधिकाँश लोग इसे समझ नहीं पायेंगे?
बहरहाल, लघुकथा क्योंकर सरलता और सादगी की मांग करती है शायद इस किस्से से और साफ़ हो:
एक बार मेरे जैसा एक अहमक किसी स्वयम्भू गुरु घंटाल के पास गया, और हाथ जोड़कर बोला:
"गुरु जी मैं बगुला पकड़ना चाहता हूँ, कोई तरीका बताइएI"
गुरु ने हँसते हुए कहा - "ये कौन सा मुश्किल काम हैI"
अहमक चेले ने चहक कर कहा - "जल्दी से बताएँ हे महान आत्माI
गुरु ने कहा - "कागज़ कलम उठा और लिख बगुला पकड़ने का तरीका I"
चेले ने कागल कलम उठाई और बेसब्री से बगुला-पकड़ "रेसिपी" का इंतज़ार करने लगा,
गुरु ने कहा: -"पहले सामग्री नोट कर, एक मोमबत्ती और एक माचिसI"
चेले ने पूछा - "इनका क्या करना है?
"गुरु ने बखान आगे बढ़ाया - "बिलकुल मुँह अँधेरे उठना और माचिस-मोमबत्ती लेकर खेतों की तरफ निकल जानाI"
चेले ने पूछा - "उसके बाद?"
गुरु जी ने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया - "वहाँ तुम्हें बहुत से बगुले मिल जाएँगेI तुम धीरे धीरे दबे पाँव चलकर किसी एक के पीछे खड़े हो जानाI धीरे से माचिस निकाल कर मोमबत्ती जलानाI"
चेले ने बहुत हैरानी से पूछा - "मोमबत्ती किस लिए जलानी है?"
गुरु ने मुस्कुराते हुए कहा - "अब उस मोमबत्ती का मोम चुपके से उस बगुले के सिर पर टपकाना शुरू करनाI"
"उससे क्या होगा?" चेले ने हैरानी से पूछाI
"अबे जब वह मोम सिर से होकर उसकी आँखों में जाएगा तो बगुला कुछ देख नहीं पाएगाI बस फिर तुम उसे आराम से पकड़ लेनाI"
चेले ने कागज़ कलम पटकते हुए कहा - "इतनी लम्बी-चौड़ी नाटकबाजी से तो बेहतर झपट्टा मारकर सीधे बगुले को ही न पकड़ लूं?
गुरु ने मूछों को ताव देते हुए जवाब दिया:
"पकड़ तो लेगा पुत्तरा! पर उसमे कलाकारी क्या हुई?"
अब यह निर्णय आपको लेना है कि बगुला “कलाकारी” से पकड़ना है या कि सीधे-सादे तरीके से, सादर.
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी,
जब आप का यह मनना है कि लघुकथा में केवल चरित्रचित्रण , कथोपकथन ही हो सकता है भाषा, पांडित्य और आध्यात्मिक दृष्टान्त को कोई स्थान नहीं होता तो बात यहीं समाप्त है।
रही बात मंच के विद्वान् मित्रों के बौद्धिक स्तर की , तो मैं ने तो इस मंच को यही मान कर ज्वाइन किया था कि अधिक से अधिक कुशाग्र बौद्धिक स्तर के लोगों के संपर्क में रहकर अपना परिमार्जन कर सकूंगा लेकिन मेरे सहज कथन को आपने नकारात्मक लिया, यह दुखद है। कठिन दार्शनिक विषय को चुनने के पीछे भी यही कारण था और कुछ नहीं।
मेरा तो यह मानना है कि शब्दजाल में उलझाकर अधिक देर तक वास्तविकता से दूर नहीं रहा जा सकता, शोधपरक नवीनता अपना स्थान बना ही लेती है। फिर भी आपके सुझाव मुझे मूल्यवान हैं। सादर।
आदरणीय टी.आर. शुक्ल जी, आत्मावलोकन के क्रम में कथा कहीं छूट गई है. व्यष्टि की अनुभूतियों को समष्टि से संलग्न करते हुए वैचारिक उपसंहार की ओर बढती इस प्रस्तुति में लघुकथा हेतु वैचारिक पृष्ठभूमि अवश्य है किन्तु लघुकथा नहीं. बहरहाल इस सहभागिता हेतु हार्दिक बधाई. सादर
आदरणीय मिथिलेश जी विनम्र आभार। आपने कथा की सतह तक जाने का प्रयास किया। कृपया आदरणीय योगराज प्रभाकर जी की टीप के साथ निवेदित सन्दर्भ में एक बार फिर से पढ़ने का समय निकालें। सादर .
आदरणीय टी.आर.शुक्ल जी, यहाँ आपके कथ्य पर मैं टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ. वह तो स्पष्ट है. मेरा कहना है कि यह लघुकथा के लिए वैचारिक पृष्ठभूमि हो सकती है, लघुकथा नहीं. आपने स्वयं शब्दजाल में अपने कथ्य को उलझा दिया है.
बात बिलकुल सीधी सी है. कथानक केवल इतना सा है कि परमपिता आत्मावलोकन कर रहे हैं कि मैंने यह विशाल रचना (निर्गुण से सगुण) इस प्रयोजन से की थी कि यह यह क्रमागत चरण पूर्ण कर वापस (सगुण से निर्गुण) हो जाएगी किन्तु मनुष्य ने कर्म फल और क्रिया-प्रतिक्रिया चक्र में स्वयं को इतना उलझा लिया कि यह क्रमागत यात्रा पूरी ही नहीं हो रही.
चलिए ये तो कथानक या प्लाट हो गया. अब लघुकथा कहाँ है? यही मुख्य प्रश्न है. आप आध्यात्मिक चिंतन और साहित्य में भेद तो मानते ही होंगे. बस मंच के गुनीजन इसी ओर संकेत कर रहें हैं. यहाँ एक निवेदन और करना चाहूँगा कि तत्व-ज्ञान एवं आध्यात्मिक चर्चा हेतु मंच पर एक ग्रुप बना है जहाँ आप भी पोस्ट कर चुकें हैं. यह आयोजन लघुकथा की कार्यशाला है. आप यहाँ आध्यात्मिक चिंतन कर रहें हैं. कथानक या विचार या प्लाट को लघुकथा नहीं कहा जा सकता है. केवल इतना ही निवेदन कर रहा हूँ.
आपके इस कथन को देखकर वाकई आश्चर्य में हूँ कि आप मंच को अब तक कितना समझ पाए हैं-
//रही बात मंच के विद्वान् मित्रों के बौद्धिक स्तर की , तो मैं ने तो इस मंच को यही मान कर ज्वाइन किया था कि अधिक से अधिक कुशाग्र बौद्धिक स्तर के लोगों के संपर्क में रहकर अपना परिमार्जन कर सकूंगा लेकिन मेरे सहज कथन को आपने नकारात्मक लिया, यह दुखद है।//
आपका यह कथन क्या सहज है कि आप मंच के विद्वानों के बौद्धिक स्तर पर प्रश्न उठा रहें है?. क्या इस कथन में आपको अहम् या आत्ममुग्धता के विन्दुवत होते जाने का आभास नहीं हो रहा है? आदरणीय यह आयोजन साहित्यिक विधा विशेष पर आधारित है जिसके अपने विधान है, शिल्प है. यदि विधा विशेष में सृजन करना है तो उसके शिल्प को साधना होगा, विधानों का पालन करना होगा. यकीन मानिए आप साहित्य की सर्जना कीजिये, पाठक उसके दर्शन तक स्वयं पहुँच जाएगा.
मेरा भी यही मानना है कि // शब्दजाल में उलझाकर अधिक देर तक वास्तविकता से दूर नहीं रहा जा सकता, शोधपरक नवीनता अपना स्थान बना ही लेती है।// आपकी प्रस्तुति में शब्द जाल का उलझाव है इसीलिये उसी शोधपरक नवीनता की कमी की ओर मंच के गुनीजन संकेत कर रहें हैं.
एक बात और निवेदन करता चलूँ कि प्रदत्त विषय "ढहते किले का दर्द" के अंतर्गत सर्व-शक्तिमान की चर्चा मुझे व्यक्तिगत रूप से उचित नहीं लगी.
आपने कहा ही कुछ ऐसा कि मुझे आपका अनुज होने के बावजूद अपना मत रखना पड़ा. विश्वास है कि आप मेरी बातों को अन्यथा नहीं लेंगे. क्षमा सहित सादर.
आदरणीय मिथिलेश जी , सर्वप्रथम आपके द्वारा आदरणीया राजेश जी की टीप को आधार बना कर मेरी रचना को विद्वानों के चाहे जाने के अनुकूल बनाने में जो बहुमूल्य समय दिया है उसके लिये अपार धन्यवाद।
आपको याद होगा गत नवंवर माह में नोटबंदी पर मैं ने कथोपकथन के रूप में एक रचना आपलोगों के समक्ष प्रस्तुत की थी । वही नहीं, पहले भी आपलोगों के द्वारा निर्धारित नियमों के अन्तर्गत ही मैं लिखने का प्रयास करता रहा हॅूं। नवम्वर माह की कथा को जहाॅं आदरणीय योगराज प्रभाकर जी द्वारा कालजयी रचना कहकर प्रशंसा की गयी थी वहीं अन्य विद्वानों ने उसे मात्र कथोपकथन या फिर समाचार जैसा निरूपित किया था।
इस बार भी मैं आपके उदाहरणानुसार कथोपकथन में लिख सकता था परन्तु पूर्वोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते ही मन में यह विचार आया कि सभी प्रकार के नियम समय समय पर बनाये और संशोधित किए जाते रहते हैं अतः क्या नियमों की लीक से हटकर नहीं चला जा सकता । अतः इस विचार को केन्द्रित कर ‘‘ढहते किले के दर्द ‘‘ को कथोपकथन या चरित्रचित्रण के रूपमें न करके मन में ही विचार मंथन करते हुए अनुभव किया जाना व्यक्त करने का प्रयोग करने की धृष्टता कर डाली है । जब साहित्य की प्रत्येक विधा का उद्देश्य भाषा को सम्रद्ध करना ही होता है तो कुछ कठिन शब्द भी हो जाएं तो क्या हर्ज है यह मानकर अपने हिसाब से वैचारिक प्रवाह में दर्द को बहाने का प्रयोग करना चाहा था परन्तु आप सब ने उसे अस्वीकार कर दिया। हम फिर से उसी लीक पर चलने का प्रयास करेंगे।
आपने अपना बहुमूल्य समय देकर कृतार्थ किया, इसके लिये पुनः आभार । सादर ।
आदरणीय टी.आर.शुक्ल जी, नवम्बर माह के आयोजन की उस लघुकथा को मैंने भी कालजयी कहा था. अर्थव्यवस्था के जिन छिपे हुए पहलुओं को आपने लघुकथा का आधार बनाया था वह बिलकुल नया और प्रभावोत्पादक था. उस लघुकथा पर केवल दो पाठकों ने सकारात्मक राय नहीं दी थी लेकिन बाकी के 25 पाठको ने उसे शानदार/अच्छी/उत्कृष्ट/कालजयी प्रस्तुति कहा था. जिन दो पाठको को वह लघुकथा "सपाट बयानी" और "नोटबंदी पर बातचीत का हिस्सा" लगी थी, वे कभी कभार दर्शन देने वाले पाठक है. इस आयोजन में वे दोनों पाठक सम्मिलित नहीं है. आपकी लघुकथा के प्रति यह उनकी व्यक्तिगत धारणा थी लेकिन आपने हम 25 पाठकों की बातों का जिक्र नहीं किया. अब आप ही बताइए 25 पाठक सही राय दे रहें थे या दो पाठक?
कभी कभी प्रयोग असफल हो जाते हैं. मेरे भी हुए हैं. इसी आयोजन के पहले अंक में मैंने अपनी लघुकथा पोस्ट की थी जिसे लघुकथा न मानकर खारिज कर दिया गया था और संकलन में भी सम्मिलित नहीं किया गया था. खैर आप बढ़िया लिखते हैं तो प्रस्तुति के सम्प्रेषण के लिए और किसी भी विधा विशेष में लिखने के लिए थोडा सा विधान अनुसार तो चलना ही होगा. सादर
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