आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक आभार आ० राजेश कुमारी जी. आपने वो बात पकड़ी है जिसे सभी नज़रंदाज़ कर गएI वह महाशय सबको अपनी पत्नी जैसा ही समझ रहे थेI
विजेता
‘बाल-दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित इस कम्पीटीशन में हमारा आज का सबसे पहला इंवेट है नर्सरी के बच्चों की लैमन-स्पून रेस।’ ग्राउंड में टंगे बैनर, जिस पर खेलते-कूदते बच्चों के चित्रों के साथ सुनहरे अक्षरों में ‘किंडरगार्टन क्लासेज़ स्पोटर्स कम्पीटिशन’ लिखा हुआ था, को रीझ से निहारते सहसा कानों से टकराई इस उद्घोषणा ने उसकी तंद्रा तोड़ दी।
जैसे ही रेस शुरू हुई चम्मच पर रखे नींबू को बच्चे मुँह में दबाए बड़ी सावधानी से लेकर आगे बढ़ने लगे और अभिभावक अपने-अपने बच्चों का हौंसला बढ़ाने लगे। पर एक बच्चा उल्ट ही दिशा में चलने लगा तो उसकी मम्मी ज़ोर से चिल्लाई ‘ बेटे अंजली ! इस तरफ नहीं, उस तरफ जाओ।’
‘हाँ- हाँ अंजली ! इधर नहीं, उधर जाओ । ’ जिधर दूसरे बच्चे बढ़ रहे थे उस ओर अंगुली से इशारा करता वो भी चिल्लाया।
अंजली के पापा ने अजीब सी निगाहों से उसकी ओर घूरा।
‘शाबास वंश ! शाबास ! बस पहुंचने ही वाले हो, ध्यान से और आराम से चलो।’ फिनिशिंग प्वांइट की ओर तेज़ी से बढ़ते अपने बेटे को देख वंश के मां-बाप उत्साह से लबरेज़ थे।
‘वैल्डन वंश !’ जैसे ही वंश ने फिनशिंग प्वाइंट को छुआ तो वो ज़ोर से तालियां बजाते हुए खुशी से चिल्लाया
‘ये कौन है?’ आंखों के इशारो से वंश के पापा ने पत्नी से पूछा
"पता नहीं!’ मुंह बिदका कर इशारों में ही वंश की मम्मी ने जवाब दिया
इतने में ही के.जी. कक्षा की सैक रेस की उद्घोषणा हो गई और वह उस ओर बढ़ गया।
पैरों में बोरी डाल कर भागते-गिरते बच्चों को देख बाकी अभिभावकों जैसे वो भी बच्चों को उनके नाम से पुकारता हुआ उनका हौंसला बढ़ाने में लग गया।
‘कोई बात नहीं मनन ! उठो और दुबारा कोशिश करो ! शाबास !’
‘पीछे मुड़कर मत देखो गीतू बेटे ! तेज़ और तेज़।’
अपने बच्चों का नाम लेकर पुकारने पर कई माँ-बाप सवालिया नज़रों से उसे देख रहे थे। किन्तु वह सबसे बेखबर भागते-कूदते बच्चों के साथ बच्चा बन उनको लगातार उत्साहित किए जा रहा था ।
‘वो कौन हैं?’ एक अभिभावक ने उसकी ओर इशारा करते हुए पास बैठे टीचर से पूछा ।
‘वो! वो तो अवी के पापा हैं !’
‘अवी कौन?’
‘अवी यू.के.जी. का स्टुडेंट है, बहुत होनहार है बेचारा ! वोऽऽ बैठा है...।’
कई गर्दनें टीचर की अंगुली वाली दिशा में घूम गईं।
ग्राउंड के दूसरी ओर अपनी व्हील-चेयर पर बैठा अवी भी तालियां बजाकर अपने साथीओं का हौंसला बढ़ा रहा था।
(मौलिक व अप्रकाशित)
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महंगी धूप
‘कम से कम अपने झुमके ही रख लेती’ सुनार की दुकान से बाहर निकल कर राकेश स्कूटर को किक मारते हुए शारदा से बोला
‘कोई बात नहीं जी ! ऐसे वक्त के लिए ही तो गहने बनवाए जाते हैं। वैसे भी कौन सी उम्र रही है गहने पहनने की, भगवान की दया से अब तो बच्चे बराबर के हो गए हैं । अपना घर बन जाए अब तो !’ पर्स को कस कर पकड़ स्कूटर पर बैठती हुई शारदा ने कहा
अब तो हो ही जाएगा । पी.एफ., बेटियों की आरडी और अब ये गहने भी ...! नीतू और मीतू की शादी कैसे करेंगे?’ ठंडी सांस भरता राकेश धीरे से बोला
‘आप चिंता मत करो जी ! अभी उम्र ही क्या है बेटियों की ! नीतू अगस्त में पंद्रहवें में लगेगी और मीतू दिसंबर में सतारवें में । उनकी शादी तक तो भगवान की कृपा से रोहन इंजीनियरिंग पूरी कर अच्छी नौकरी लग चुका होगा और आपकी रिटायरमेंट को तो अभी 11 साल बाकी हैं।’ शारदा अपना हाथ राकेश के कंधे पर रखते हुए आशा भरी आवाज़ में बोली
‘हां...। खैर ! अब तो घर में दम सा घुटने लगा है। तीन ही तो कमरे है और साथ में भाई साहिब की फैमिली। मैं तो किसी दफ्तर वाले को घर तक नहीं बुला सकता।’
‘सही कह रहे हो। दम तो वाकई घुटने लगा है । एक तो घर गली के आखिरी कोने में है जहां न धूप न हवा । कभी छत्त पर चले ही जाओ तो जेठानी जी के माथे की त्यौरियां और उनके कमेंट्स...उफ्फ... बर्दाश्त के बाहर हो जाते हैं। मैं तो तरस गईं हूं खुली धूप में बैठने को।’ राकेश ने मानो उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो।
‘आइए राकेश बाबू ! आपका ही इंतज़ार था ।’ निर्माणाधीन हाऊसिंग कालोनी के गेट पर मज़दूरों को काम समझाता हुआ मैनेजर राकेश को आता देख गर्मजोशी से उनकी ओर लपका। ‘स्कूटर उधर खड़ा कर दीजिए। बस कुछ ही दिनों की बात है पार्किंग भी तैयार हो जाएगी।’
‘ओए ! ये सामान हटाओ यहां से’ मज़दूर को इशारा करते हुए मैनेजर बोला ।
‘आइए ऑफिस में बैठ कर फारमेलिटीज़ कंप्लीट कर लेते हैं... पेमैंट लाए हैं ना...?’
‘हां हां पेमेंट तो लाया हूं। एक नज़़र फ्लैट तो दिखा दें इसीलिए तो आज श्रीमति जी को साथ लाया हूं।’
‘क्यों नहीं... क्यों नहीं ! आइए उधर से चलते हैं । भाभी जी ! ज़रा ध्यान से चढ़िएगा ! बस कुछ ही दिनों में रेलिंग भी लग जाएगी।’ सीढ़ीया चढ़ते हुए मैनेजर बेफ्रिकी से बोला
‘फ्लैट्स तो सारे बुक हो चुके हैं जी पर आपके जी.एम. साहिब के कहने पर यह फ्लैट आपके लिए रिज़र्व रख दिया था। आप इत्मिनान से देख कर तसल्ली कर लें, मैं ठंडा मंगवाता हूँ । ’ दो सीढ़ीया चढ़ कर आए राकेश और शारदा को हांफता देख मैनेजर बोला
‘राकेश! इधर देखें। ये किचन थोड़ा छोटा लग रहा है। ये बेडरूम... इसमें डबल बैड लगने के बाद जगह ही कहां बचेगी और ये आस पास की बिल््डिंगज़ तो लॉबी की सारी धूप और हवा रोक रही हैं।’ मैनेजर के जाते ही थकान भूल कर फ्लैट का मुआयना करती हुई शारदा अधीरता से बोली
‘लीजिए ठंडा पीजिए !’ खाली फ्लैट में मैनेजर की गूंजती आवाज़ से दोनों एकदम चौंक गए
‘भाई साहिब! टैरेस...।’ गिलास पकड़ते हुए शारदा ने पूछा
‘भाभी जी ! टैरेस तो कॉमन है सभी फ्लैट्स के लिए।’
‘सभी के लिए कॉमन ! ये तो वही बात हो गई ! राकेश धीरे से शारदा के कान में फुसफुसाया
‘पार्क के पीछे वाली कालोनी हमारी ही कंपनी बना रही है। वहां कारपेट एरिया तो इससे अधिक है ही साथ ही
एंटरी और टैरेस भी इंडीपैंडेंट है । आप वहां देख लीजिए।’ स्थिती भांपते हुए मैनेजर ने तीर छोड़ा
‘उसका प्राइस?’ शारदा ने संकुचाते हुए पूछा
‘अजी प्राइस तो बहुत कम है जी। कंपनी तो आपकी सेवा के लिए ही है। बस इस फ्लैट से सिर्फ आठ लाख ही अधिक देने होंगे।’ खीसें निपोरता मैनेजर बोला
‘मैनेजर सॉबऽऽ! गुप्ता जी आपको नीचे आफिस में बुला रहे हैं।’ नीचे से कुछ सामान उठाकर आ रहे एक मज़दूर ने मैनेजर को कहा
‘मैं नीचे आफिस में ही हूं, जो भी आपकी सलाह हो बता दीजिएगा।’ बाहर निकलते हुए मैनेजर बोला
‘आठ लाख ! इतना तो हो ही नहीं पाएगा। तो अब क्या करें।’ राकेश की आवाज़ मानो बहुत गहरे कुएं से आ रही थी
‘फ्लैट बेशक छोटा है पर अपने घर से छोटा तो नहीं है ना फिर छत्त पर जाने से किसी के साथ कोई चखचख भी नहीं। यहां तुम अपने किसी भी दफ्तर वाले को बड़े आराम से बुला सकते हो।’
‘पर तुम्हारी वो खुली धूप में बैठने की इच्छा...।’
‘अजी मेरा तो आधा दिन स्कूल में ही निकल जाता है । उसके बाद सेंटर पर टयूशन । नीतू , मीतू भी मेरे साथ चार बजे के बाद ही घर आती हैं और तुम शाम को छ बजे के बाद। तो समय ही कहां मिलता है धूप में बैठने का।’
दोनों धीरे-धीरे सीढ़ीयां उतर आफिस की तरफ बढ़ने लगे।
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(मौलिक व अप्रकाशित)
दोनों कथाएँ मार्केदार हैं भाई रवि प्रभाकर जी, शीर्षक भी उम्दा हैंI दोनों रचनाएँ प्रभावित करती हैंI विजेता लघुकथा पर एक बहुत ही मर्मस्पर्शी लघु टेली-फिल्म भी बनाई जा सकती हैI जहाँ पहली लघुकथा में मार्मिकता कूट कूट कर भरी हुई है वहीँ दूसरी लघुकथा जिये हुए अनुभव से निकली हैI मुझे याद है जब मैं सन 2007 में पुराने शहर वाला घर छोड़ कर नई कोठी में आया था तो एक रात फोन करते करते मैं पिछले लॉन में रखे तख्तपोश पर लेट गयाI अचानक आसमान की तरफ ध्यान गया तो देखा पूरा आकाश तारों से भरा हुआ थाI तब मुझे याद आया कि मैंने आसमान कितने बरसों के बाद देखा हैI यदि पाठक लघुकथा में खुद को जुड़ा हुआ नहीं देखता, तो माना जाना चाहिए कि लघुकथा में कोई कमी अवश्य रह गई हैI मैंने इस लघुकथा में खुद को महसूस किया, जिस कारण यह मुझे बेहद पसंद आईI
//‘आप चिंता मत करो जी ! अभी उम्र ही क्या है बेटियों की ! नीतू अगस्त में पंद्रहवें में लगेगी और मीतू दिसंबर में सतारवें में । उनकी शादी तक तो भगवान की कृपा से रोहन इंजीनियरिंग पूरी कर अच्छी नौकरी लग चुका होगा//
यहाँ "नीतू, मीतू, रोहन" की जगह बेटियाँ और बेटा कर लें ताकि नामों में उलझने का चक्कर ही खत्म हो जाएI बहरहाल, मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारेंI आपसे सभी रचनाओं पर विषद टिप्पणियों की भी पुरजोर गुज़ारिश हैI
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