आदरणीय साथिओ,
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जनाब सुनील वर्मा जी आदाब,सबसे पहले तो शीर्षक की बात,आपने शीर्षक उर्दू से लिया है,और उर्दू में सही शब्द है "दख़्ल"।
लघुकथा अच्छी लगी,इसके लिये बधाई स्वीकार करें ।
आपकी लघुकथा की शुरुआत//दूर से आती अज़ान की आवाज़ सुनकर उसने सिर के नीचे से तकिया निकालकर अपने कानों पर रख लिया//जब कोई आवाज़ दूर से आती है तो गहरी नींद में सोने वाले पर इतना असर नहीं डालती कि इसे कानों पर तकिया रखने की ज़रूरत महसूस हो,फिर उसके बाद ट्रेन के इंजन के शोर का ज़िक्र सिर्फ भर्ती का लगा,आप इस लघुकथा के ज़रिये जो सन्देश देना चाहते हैं वो स्पष्ट है,मेरा मश्विरा है कि किसी भी लेखक को ऐसे बिंदु नहीं उठाने चाहिये जो किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाएं ।
आदरणीय सुनील भाई
जीवन में सब कुछ हमारी मर्जी से हो यह संभव नहीं । कुछ टंकण की त्रुटियाँ हो गई पर कथा बहुत सुंदर है। ह्रदय से बधाई इस प्रस्तुति के लिए।
बहुत बढ़िया कथा हुई है आदरणीय सुनील भैया | दूसरों के लिए तो बहुत सारी शिकायते होती है पर इन्सान यह भूल जाता है कि उसकी वजह से भी कोई परेशां हो रहा होगा | इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई |
किसी पर अंगुली उठाने से पहले अपने गिरेबान में झाँक कर देखे | लाजवाब और सटीक लघु लघुकथा के लिए बहुत बहुत बधाई श्री सुनील वर्मा जी |
बहुत खूब . पर उपदेश कुशल बहुतेरे की तर्ज पर और आजकल की घटनाओं से तंज चुराती सुन्दर कथा ...हार्दिक बधाई आदरणीय सुनील जी
आ० तस्दीक अहमद खान साहिब, मेरे ख्याल से हमे ऐसे मुद्दों पर संयमता से काम लेना चाहिएI मैं भाई सुनील वर्मा को ज़ाती तौर पर जानता हूँ, मुझे पूरा यकीन है कि अज़ान वाली बात उन्होंने मेलाफाईड इंटेंशन से नहीं कही होगीI
जनाब तस्दीक साहब, सुनील जी की लघुकथा एक बार और पढ़ें ....
//"और जब सामने वाला कोई अपना ही हो और उससे कहना आसान न हो तो..!" पत्नी ने अपनी भवें ऊँची करते हुए पूछा//
इस पक्ति में बहुत बड़ी बात कही गयी है, बस गंभीर अर्थ को गंभीरता से समझने की जरुरत है.
आदरणीय सुनील भाई, लघुकथा की शुरूआत हाल ही में विवादों में रही एक समसामयिक घटना जैसी लगी परन्तु जिस प्रकार उसे आपने मोड़ा है वह श्लाघनीय है जिस हेतु आप बधाई के पात्र हो। /दूर से आती अज़ान की आवाज........./ प्रिय भाई यदि अज़ान के बजाय 'धार्मिक स्थान से आती आवाज़ों' या कुछ ऐसा संकेतात्मक लिखा जाता तो उचित रहता क्योंकि इससे आपकी लघुकथा एक सीमित दायरे में कैद होकर रह गई । प्रिय भाई मैं पंजाब में रहता हूं मेरे घर के पास ही मंदिर और गुरूद्वारा दोनों हैं और सुबह सुबह दोनों जगहों से एक दूसरे से तेज़ आवाज़ सुनाने की होड़ सी लगी होती है । खैर ! लघुकथाकार को ऐसे किसी शब्द से गुरेज करना चाहिए जिससे किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचने की संभावना हो । आशा है कि आप मेरा आशय समझ रहे होंगे । प्रस्तुत लघुकथा का शीर्षक भी स्टीक चयन है । सादर शुभकामनाएं ।
प्रिय भाई, आज फिर आप पर गर्व महसूस हो रहा है। समसामयिक विषय पर लिखना आसान काम नहीं होता क्योंकि मीडिया पर मुद्दे को इतना बिलोया जा चुका होता है कि मात्र छाछ बचती है। ऐसे में मक्खन निकाल ले आना कोई आपसे सीखे। // और जब सामने वाला कोई अपना ही हो और उससे कहना आसान न हो तो// धार्मिक सद्भाव का कितना बड़ा उदाहरण है। साहित्य = स +हित =सुनील वर्मा।
इससे ज्यादा कुछ कहने को बचा ?
प्रदीप जी, आपने सही कहा ,समसामयिक विषयों को साहित्य में छूना भी कभी- कभी गुनाह करने जैसा लगता है। फिर छाछ में से मक्खन निकलने का गुर भी तो आना चाहिए।
सम सामयिक विषय पर बेहतरीन कलम चली है, एक कसी हुई बेहतरीन लघुकथा स्वरुप ली है, बधाई आदरणीय सुनील जी.
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