आदरणीय साथिओ,
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बेहतरीन कथ्य . निर्वाह भी संतोषजनक ! परन्तु अंतिम पंक्ति // करीब खडे हुए भास्कर के पिताजी ने भास्कर को गले लगाते हुए कहा-" भास्कर..आज तू आसमाँ से ज़मीं पर उतर आया रे.."// शायद इस पंक्ति की आवश्यकता नही है .
आ. वसुधा जी, प्रदत्त विषय पर बढ़िया रचना प्रस्तुत की है आपने. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. कुछ बातें :
1. रश्मि नामक पात्र की कहानी में कोई ज़रूरत नहीं थी. इसने कहानी का वज़न बढ़ाने की जगह उसे हल्का ही किया है.
2. अन्तिम पंक्ति " भास्कर..आज तू आसमाँ से ज़मीं पर उतर आया रे.." प्रभावोत्पादक नहीं है.
3. "भास्कर" जैसा शीर्षक कामचलाऊ है जबकि शीर्षक की लघुकथा में अहम् भूमिका होती है.
4. लघुकथा में कालखंड दोष भी है.
5. कथानक उम्दा है.
सादर.
हार्दिक बधाई आदरणीय वसुधा जी।बेहतरीन लघुकथा।
किसी के जीवन को प्रकाशित करती इस सकारात्मक रचना के सृजन हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया वसुधा जी| रचना में कालखंड दोष लग रहा है, जिसे हटाया जा सकता है| सादर विचारार्थ,
रचना के भाव निश्चित रूप से बहुत ही उच्च हैं, लेकिन अभी इस पर और मेहनत करने की ज़रूरत है. भाई महेंद्र कुमार जी ने बहुत ही बेशकीमती सुझाव दिए हैं, उनका संज्ञान अवश्य लें. और इस लघुकथा हेतु मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें आ० वसुधा गाडगिल जी.
एक संवेदनशील विषय पर सार्थक सृजन , हार्दिक बधाई प्रेषित है आदरणीया वसुधा गाडगिल जी
"जगमगाहट"-----
"हैलो! हैलो! पापा ? सुप्रभात, ममा को फोन दीजिए जल्दी से "---- ट्रीन-ट्रीन-ट्रीन की आवाज़ सुनते ही सुदेश मोबाईल उठाया स्क्रीन पर बिटिया को देख चहक उठे थे.
" हा बेटा! कैसी हो मुझसे बात नहीं करोगी. हर बार ममा ही क्यो लगती है तुम्हें मुझसे भी बात करो. वैसे वो तुम्हें फोन करने ही वाली थी."
" अरे! नही पप्पा ऐसी कोई बात नहीं मगर मेरी बात पहले मम्मा ही समझ..."
" वो बुनाई करती बैठी है आँगन में. "अरे! सरला, सुनो भी तुम्हारी बेटी का फोन है कहती है माँ से ही बात करना है." सुदेश आवाज लगाते हुए बोले.
" मुह्हा-- कैसी हो बेटा? हो गया दिवाली पर घर आने का आरक्षण." स्वेटर बुनते हुए सलाईयां हाथ मे पकडे सरला ने उत्साहित होते हुए पूछा.
" हा ममा! इस बार मैं "रोशनी" को लेकर घर आ रही हूँ. आप जल्द ही नानी बनने वाली है उसके लिए एक स्वेटर बुनिए." उत्साहित सी आकांक्षा ने कहा
" क्या..."
"हा! प्यारी माँ फोन रखती हूँ मुझे कोर्ट से आदेश की प्रति लेकर अनाथालय भी जाना है." आकांशा ने कहा
" सुनते हो! आप नाना बनने वाले है."
सोफ़े पर धम्म से बैठ गये सुदेश. सरला भी फोन पर बातें करते-करते नीचे गिर गये ऊन के बाल को समेटते उनके पास आ बैठी. दोनों ने एक दूसरे का हाथ थाम लिया. अचानक दोनो साथ ही बोल उठे कुछ गलत नही कर रही आकांक्षा बिटिया
"पिछली कई बार आये रिश्तों में हमारी पढी-लिखी होनहार लड़की का लडके वालो ने पैसों के बल पर किस तरह मूल्यांकन करना चाहा था और ऐसा एक बार हुआ होता तब भी हम सह लेते . सुदेश हाथ पकडे -पकडे उठते हुए ही बोले
" वही तो बार-बार एस दौर से गुजरना का स्त्री अस्मिता का अवमूल्यन ही तो हैं." सरला भी हाथ छुड़ाते हुए बुनाई के फंदो को सलाई से निकाल कर उधेडने लगी.
"अब ये क्यो खोलने लगी?" सुदेश उठकर जाते हुए बोले
"और तुम कहा चल दिए" सरला ने पूछा
"ढेर सारे दीये लेकर आता हूँ , सुंदर सुदंर रंगों से रंग कर मोतियों से सजाकर जगमगाऊँगा उन्हें"
" और अब मैं नये फंदे बुनूंगी , नये डिज़ाइन के साथ "
दोनो की खिलखिलाहट से घर रौशन हो उठा
मौलिक व अप्रकाशित
आभार सर
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