आदरणीय साथिओ,
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आ० जरूर गोली लगी पर सारे शव जीप में भरकर नदी में डाल दिए गए किस प्रकार डाले गये कथा में अंकित है ,क्या पुल तोड़कर नदी में गिरी जीप में मौजूद शव किसी को सही सलामत मिले होंगे . नदी में तो जल जीव भी होते हैं , आप कथा को कथा की तरह ही लें तो उसका असली आनंद आयेगा. कथाकार कथा को यथार्थ के निकट ला सकते है पर उसे यथार्थ नहीं बना सकते .. प्रेमचंद की कहानी ' दो बैलों की जोड़ी ' में तो बैल आपस में संवाद करते हैं . तो क्या यह मुमकिन है , सादर
प्रदत्त विषय के एक अलग पहलू को उजागर करती बढ़िया लघुकथा है आ. डॉ. गोपाल नारायन सर. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. वैसे सैनिकों का एनकाउंटर कथा को अवास्तविक बना रहा है. किसी दूसरी तरह से इसे प्रस्तुत कर इससे बचा जा सकता है. सादर.
कथा वास्तविक कब होती है आदरणीय ?
कथा पूर्णतः वास्तविक हो गयी तो वह कथा ही कहाँ रह जाएगी. इस बात से मैं भी सहमत हूँ सर. इसलिए 'वास्तविक' से यहाँ पर तात्पर्य 'वास्तविकता के समीप' से है. दूसरी बात, रचना यह स्वयं निर्धारित करती है कि वो वास्तविकता के निकट जाना चाहती है या कल्पनाशीलता के. अवास्तविकता की बात मैंने इसी सन्दर्भ में कही है. सादर.
आदरणीय डॉ गोपालनारायण जी बढ़िया लघुकथा के लिए बधाई.
लाजवाब कथा प्रदत्त विषय पर, नयेपन के साथ हार्दिक बधाई आदरणीय
"दो ध्रुव"---
उन दिनों सुलेखा एक खूशबू की तरह उसके वजूद पर छायी हुई थी. बहुत ख्याल रखता था वह उसका. शरीर के कण-कण मे विराजमान प्यार में वह अपना वजूद खोता जा रहा था. बस यही सोचा करता कि उसका प्यार एक इतिहास लिखेगा. कि---
" मैं ठिक से सांस नहीं ले पा रही हूँ ,ऐसा लग रहा है मैं किसी सुरंग में धंस रही हूँ. मैं इतिहास जमा नहीं होना चाहती. मैं रिश्ते में यकीन करती हूँ मगर परंपरागत रिश्ते के दायरे से बाहर. मैं जा रही हूँ सुधीर !."
" मगर यहाँ खुली स्वच्छंद लड़की कहा रह सकती हैं. उसे कंधे से पकड़ जोर-जोर से हिलाकर गला खकारते हुए सुधीर बोला"
"पता नहीं आज जिस तरह तुम्हारा दिल तोड़कर जा रही हूँ कल को मेरा कोई तोडे तब शायद.." और सुलेखा निकल गई थी
वह अपनी पंगु हो चुकी भावनाओं से असली संवेदनाओं के दायरे में आ रहा था कसमसाकर पुरूष जमात की मुख्य धारा में आ रहा था. उसने अचानक चिल्लाते हुए कहा मैं पुरूष हूँ और यही मेरी सच्चाई.
वह एकाएक सपने से बाहर आ गया. उनींदी आँखो से देखा सामने की दीवार पर झुल रही पुश्तैनी घड़ी में दोनों सुईयाँ दो ध्रुवों पर थी. उसमें ठीक छह बज रहे थें.
मौलिक व अप्रकाशित
अच्छा प्रयास। हार्दिक बधाई आदरणीया नयना (आरती) कनिटकर जी। अभी मै इसे और समझने की कोशिश कर रहा हूं।
आदरणीया नयना आरती जी आदाब,
लघुकथा का प्रयास अच्छा है । संवाद भी पात्रानुकू । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
नयना ताई, कथा में आपने क्या कहना चाहा है - कुछ पल्ले नहीं पड़ा.
आ.भाई जी सादर प्रणाम, हाँ मैने यह बताने का प्रयास किया है कि दूनिया चाहे कितनी भी बदल जाए पूरूष का नजरिया एक स्त्री के प्रति कभी नहीं बदलता. वो उससे दैहिक प्रेमकर इतिहास गढने की इच्छा रखता है जबकी स्त्री इतिहास बदले की इच्छुक हैं और जब वह उसे छोडकर चली जाती हैं तब उसके अंदर का पुरूष जागता है...अंत में घडी के काटॊ को प्रतिक लेकेर यह बताना चाहती हूँ कि स्त्री-पुरूष प्राकृतिक रुप से अलग है इनके इतिहास नहीं बदलते.
आपके सुझाव पर संप्रेषण में बदलाव की कोशीश करती हूँ. सादर
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