आदरणीय साथिओ,
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'जतन' ( दिवास्वप्न, विषयाधारित )
विद्यालय में पढना तो बन्नू के लिए संभव नहीं था पर उसके बाहर 'चीनी के जादुई बाल' बेचकर वह अपने परिवार की मदद जरूर कर लेता था। आज किसी कारण विधालय बंद होने से उसकी कोई खास बिक्री नहीं हुयी। गलियों में आवाज लगा-लगा कर थकने के बाद आखिर थकान दूर करने के लिए वह फुटपाथ पर बैठा तो उसकी आँख लग गयी।........
"माँ आज भी कछु न बिको।" घर पहुँच टूटा दरवाजा ठेलते हुए उसने उदास स्वर में कहा।
"काहे मन खराब करे है? आ बैठ, आराम करले बिटवा। ये सब तो 'भाग' की बात है। माँ मुस्करा कर बोली।
"नहीं रे माँ, हर बात को 'भाग' पर काहे डाल देत हो। देखना शाम को मैं 'छोटे मॉल' के बाहर जाऊंगा और जरूर दिन भर की कमी पूरी करके लाऊंगा।"
"अरे वाह!" माँ खिलखिलाने लगी। "बहुत समझदारी की बात करने लगा है हमार बिटवा। बस छोड़, रहने दे आज की कमाई। चल आज हम खुद ही मॉल के अंदर घूमकर आते है।" कहते हुये माँ ने उसे कस कर गले लगा लिया।
"ओ माँ, क्या करती हो दर्द होता है।" कहते हुये सहज ही उसके हाथ अपनी बाजू पर चले गए।
"...... अरे बन्नू! यहां बैठकर कौन से सपने देख रहा है भाई?" सामने खड़ा उसका हमउम्र, हमपेशा दोस्त उसे बाजू पकड़ हिला रहा था।
बोझिल आँखें अलसाये भाव से खुल गयी, बाजू के दर्द का अहसास अभी भी था।
"कुछ नहीँ कालि! बस थोड़ा थक गया था यार।" मुस्कराने की कोशिश करता हुआ वह उठ खड़ा हुआ।
"अच्छा, चल घर चलते है। बस हो गया आज का धंधा-पानी।"
"नहीं यार तू चल। मुझे अभी आगे जाना है।"
"अच्छा तेरी मर्जी।" कहता हुआ कालि चल पड़ा।
"दोस्त, तुम तो जानते हो खाली हाथ घर पहुँचने पर माँ का गुस्सा। अब ये भूखा मन सपने देख कर खुश तो हो सकता है लेकिन उन्हें पूरे करने के लिये तो कुछ जतन करने ही होंगे न।" सोचते हुये बन्नू छोटे मॉल की ओर बढ़ चला।
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( मौलिक व् अप्रसारित/अप्रकाशित )
जनाब वीरेन्द्र वीर मेहता जी आदाब,प्रदत्त विषय पर बढ़िया लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
प्रदत्त विषय को सुन्दरता से परिभाषित कर रही है यह लघुकथा. मॉल में जाकर दिन भर की कमी-बेशी पूरा करने की इच्छा फिर माँ द्वारा उसे लेकर मॉल में घुमाने की कल्पना, दिवास्वप्न यही तो होता है. लघुकथा बहुत ही उत्कृष्ट इ, जिस हेतु आपको हार्दिक बधाई भाई वीर मेहता जी. किन्तु इस पंक्ति का औचित्य समझ नहीं आया:
//"ओ माँ, क्या करती हो दर्द होता है।" कहते हुये सहज ही उसके हाथ अपनी बाजू पर चले गए।//
आदरणीय वीर मेहता वीर जी आदाब,
प्रदत्त विषय के साथ न्याय करती खरी और सशक्त लघुकथा । कथानक बहुय ही सरसता के साथ आगे बढ़ता है और दिवास्वप्न पर संपन्न होता है । क्षेत्रीय बोली के संवाद भी सबको समझने में आने वाले । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
प्रदत्त विषय पर बढ़िया लघुकथा हुई है आदरणीय वीरेंदर वीर मेहता जी. मेरी तरफ़ से भी हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.
1. कुछ टंकण त्रुटियाँ हैं उन्हें देख लीजिएगा जैसे : पढना और विधालय आदि.
2. //"ओ माँ, क्या करती हो दर्द होता है।" कहते हुये सहज ही उसके हाथ अपनी बाजू पर चले गए।
"...... अरे बन्नू! यहां बैठकर कौन से सपने देख रहा है भाई?" सामने खड़ा उसका हमउम्र, हमपेशा दोस्त उसे बाजू पकड़ हिला रहा था।// बन्नू को दिवास्वप्न से बाहर निकालने के लिए कोई अन्य तरीका भी इस्तेमाल में लाया जा सकता है अथवा इस संवाद ("ओ माँ, क्या करती हो दर्द होता है।") को थोड़ा बदला या हटाया जा सकता है.
सादर.
जनाब वीरेंद्र मेहता साहिब ,प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें।
बहुत बढ़िया लघुकथा आदरणीय वीरेन्द्र सर जी ,बधाई इस सुंदर रचना के लिए ,सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय वीर मेहता जी ।बेहतरीन लघुकथा।
मॉल में घूमने के दिवास्वप्न का खूबसूरत वर्णन हार्दिक बधाई आदरणीय वीरेन्द्र वीर मेहता जी
विषयांतर्गत बहुत ही उम्दा भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय वीरेंद्र वीर मेहता जी। आदरणीय महेंद्र कुमार जी द्वारा बताई गई टंकण त्रुटियों के अलावा भी कुछ और भी हैं, देख लीजिएगा। जैसे ://अपने परिवार की मदद जरूर कर लेता(देता) था।//
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