आदरणीय साथिओ,
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शीर्षक बहुत पसंद आया | टी वी देखते देखते अक्सर बहस छिड़ जाती है | कश्मीर से पाकिस्तान लेना अथवा १९७१ की तरह सबक सिखाना ही यहाँ के लोगो का स्वप्न है | लाजवाब लघु कथा के लिए बधाई आदरणीय
वाह! वाह!! क्या कहने आली जनाब के । बहुत ख़ूब नज़रिया । क्या ख़ूब दूर की कौड़ी लाए हैं । बेहतरीन संवाद , कथानक में अथाह सस्पेंस । क्या कुछ नहीं समेट दिया आपने । मज़ा आ गया । बहुत-बहुत हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर जी । काफी प्रेरणा मिली ।
शौर्य के रंग में रँगी अद्भुत लघुकथा।
पड़ोसी किस तरह की सोच में हो सकते हैं। उसका बेहतरीन नमूना।
लघुकथा को अपना कीमती समय देकर सराहने हेतु मेरे सभी आदरणीय मित्रों का हार्दिक धन्यवाद।
प्रस्तुत लघुकथा प्रदत्त विषय को जिस प्रभावशाली व सार्थक ढंग से परिभाषित कर रही है वह प्रशंसनीय है । अनुभवी दादा की , टी.वी. देखते पोते की भावभंगिमाएं और दादा के जवाब उसके बदलते हाव-भाव पूरी लघुकथा का सार बयां करने के लिए काफी है । लघुकथा का शीर्षक लघुकथा से भी उम्दा । एक आदर्श शीर्षक चयन जो पूरी अपने आप में पूरे इतिहास को प्रतिबिम्बित कर रहा है । 'घड़ी की सूईयां' दुबारा उस जगह वापिस अवश्य पहुंचती हैं जहां से वे चली हैं। / कश्मीरी भाईओं पर दिन रात जुल्म कर रही हैI" / यहां जुल्म के स्थान पर तश्दद और दादा जी को दादा जान करने से भाषा देशकालनुरूप बनती और लघुकथा के प्रभाव में बढ़ौतरी होती । सादर
हमेशा की तरह लाजवाब और बस लाजवाब कथा| हार्दिक बधाई सर |
आद0 योगराज भाई जी सादर अभिवादन। ग़ज़ज़्ब सोचते हैं आप। आपकी कल्पनाशीलता का जबाब नहीं। और उसको इतना बढिया उकेरते है कि क्या कहूँ। सिर्फ नमन नमन नमन नमन। सादर बधाई स्वीकार कीजिये
'हवाओं के वश में' (लघुकथा) :
बहुत दिनों बाद बेटे का फोन आया, तो बूढ़े पिता की ख़ुशी का ठिकाना न था। आज जी भर के बेटे से बात करने के इरादे के साथ बात करते हुए मोबाइल फोन लिए उनका हाथ कांप रहा था और ज़ुबां भी लड़खड़ा रही थी। बेटा कुछ ज़ल्दी में था।
" हां कहिए, क्या कहना चाहते हैं?"
" वो बेटा ... "
" हां, ज़ल्दी कहिए! टाइम नहीं है! अजीब से मैसिज क्यों भेजते हैं आप?"
"वो बेटा क्या है कि.... "
"डॉट.. डॉट...डॉट.. ब्लैंक मैसिज! तो कभी केवल क्वेश्चन मार्क वाला .. और कभी-कभी केवल एक्सक्लेमेशन (आश्चर्यबोधक) मार्क वाला मैसिज! क्या है पापा यह सब?"
"तुम कभी फोन नहीं उठाते... तो टीवी पर तुम्हारे राशिफल सुन कर कुछ कन्फर्म करने के लिए ..! बेटा आंखें कमज़ोर हैं, मोबाइल पर टाइपिंग नहीं कर पाता, सो इतना ही मैसिज कर देता था, शायद तुम हमारा इशारा समझ लो!" अबकी बार वे एक सांस में इतना कह गये थे। तभी बेटे के तेज़ स्वर सुनाई दिए :
"आप को पता है न मेरी नौकरी और बिज़ी लाइफ के बारे में! इस तरह के मैसिजिज़ से मैं कितने टेंशन में आ जाता हूं, कभी सोचा है आपने?"
"मैं और तुम्हारी बीमार मां तुमसे ज़्यादा टेंशन में रहते हैं! फुरसत हैं न!"
"आप लोग अपना ख़्याल रखें! मेरी फिक्र न करें! अगली बार कुछ ज़्यादा पैसे भेज दूंगा!" इतना कहकर बेटे ने फोन काट दिया।
"मां-बाप को तुम्हारे पैसों के मोहताज़ नहीं हैं! " बड़बड़ाते हुए उन्होंने अपना सादा मोबाइल टेबल पर रखा और पत्नि के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले -"बेटा मज़े में है! तुम उसकी और उसकी शादी की फ़िक्र मत करो! नई हवाओं का असर है!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,प्रदत्त विषय से पूर्ण न्याय करती लाजवाब लघुकथा,कथानक,संवाद,शिल्प,प्रवाह हर लिहाज़ से एक मुकम्मल लघुकथा,मुझे बेहद पसंद आई,इस शानदार प्रस्तुति पर दिल से ढेरों बधाई स्वीकार करें ।
13वीं पंक्ति में 'फुरसत हैं न' की जगह "फ़ुर्सती हैं न'
15वीं पंक्ति में 'माँ बाप को तुम्हारे पैसों के मोहताज नहीं हैं'
"माँ बाप तुम्हारे पैसों के मुहताज नहीं हैं" कर लें ।
विषयांतर्गत मैंने तीन लघुकथाएं तैयार कर रखीं थीं। सुबह बस यह फाइनल करना था कि माहौल के अनुसार प्रयोगात्मक वाली पोस्ट करूं या पूरी तरह अपनी मौलिक व अप्रकाशित में से कोई एक!
इस रचना पर आपकी पहली प्रतिक्रिया पाकर धन्य हुआ। वाक्य संरचनाओं संबंधित आपके सुझावों अनुसार परिवर्तन कर दूंगा। मुझे उर्दू नहीं आती। थोड़ी बहुत पढ़ लेता हूं। उर्दू सीखना दिवास्वप्न ही रहा। सुझावों और हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब।
उर्दू सीखना दिवास्वप्न नहीं है,आप प्रयास करें तो आज भी सीख सकते हैं ।
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